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[ आवश्यकसूत्र
ही पौरुषी का पालन कर लेना।
(६) सर्वसमाधिप्रत्ययाकार – किसी आकस्मिक शूल आदि तीव्र रोग की उपशांति के लिये औषधि आदि ग्रहण करना।
प्रच्छन्नकाल, दिशामोह और साधुवचन, उक्त तीनों आगारों का अभिप्राय यह है कि भ्रांति के कारण पौरुषी पूर्ण न होने पर भी पूर्ण समझ कर भोजन करले तो व्रत भंग नहीं होता है। यदि भोजन करते समय यह मालूम हो जाए कि अभी पौरुषी पूर्ण नहीं हुई है तो उसी समय भोजन करना छोड़ देना चाहिये।
____पौरुषी के समान ही सार्धपौरुषी-प्रत्याख्यान भी होता है । इसमें डेढ़ प्रहर दिन चढ़े तक आहार का त्याग करना होता है। अतः जब उक्त सार्धपौरुषी का प्रत्याख्यान करना हो तब 'पोरिसिं' के स्थान पर 'सड्ढपोरिसिं' पाठ बोलना चाहिये। ३. पूर्वार्धसूत्र
उग्गए सूरे, पुरिमड्डे पच्चक्खामि; चउव्विहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइम, साइमं।
अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं; पच्छन्नकालेणं, दिसामोहणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि।
भावार्थ – सूर्योदय से ले कर दिन के पूर्वार्ध तक अर्थात् दो प्रहर तक चारों प्रकार के आहारअशन, पान, खादिम, स्वादिम का प्रत्याख्यान करता हूँ।
अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिशामोह, साधुवचन, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्याकार, इन सात आगारों के सिवाय पूर्णतया आहार का त्याग करता हूँ।
विवेचन – यह पूर्वार्ध-प्रत्याख्यान का सूत्र है। इसमें सूर्योदय से लेकर दिन के पूर्व भाग तक अर्थात् दो प्रहर दिन चढ़े तक चारों तरह के आहारों का त्याग किया जाता है।
प्रस्तुत प्रत्याख्यान में सात आगार माने गये हैं । छह तो पूर्वोक्त पौरुषी के ही आगार हैं , सातवां आगार महत्तराकार है । 'महत्तराकार' में 'महत्तर' शब्द का अर्थ दो प्रकार से किया गया है – महत्तर अर्थात् अपेक्षाकृत महान पुरुष आचार्य, उपाध्याय आदि गच्छ या संघ के प्रमुख तथा अपेक्षाकृत महान निर्जरा वाला कोई प्रयोजन या कार्य, तदनुसार अर्थ है कि महान – अपेक्षाकृत अधिक निर्जरा को ध्यान में रख कर रोगी आदि की सेवा के लिये या श्रमणसंघ के किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये निश्चित समय से पहले प्रत्याख्यान पार लेना। यहां महत्तर का अर्थ है – महान् निर्जरा-साधक प्रयोजन । यथा आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है -
'महत्तरं – प्रत्याख्यानपालनवशाल्लभ्यनिर्जरापेक्षया बृहत्तरनिर्जरालाभहेतुभूतं, पुरुषान्तरेण