Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 190
________________ बारह व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण ] [११९ होती है, उसको सामायिक कहते हैं । इसलिये मैं नियमपर्यन्त मन, वचन, काया से पापजनक क्रिया न करूंगा और न दूसरों से करवाऊंगा। यदि मैंने सामायिक के समय में बुरे विचार किए हों, कठोर वचन या पापजनक वचन बोले हों, अयतनापूर्वक शरीर से चलना-फिरना, हाथ पांव को फैलाना-संकोचना आदि क्रियाएँ की हों, सामायिक करने का काल याद न रखा हो तथा अल्पकाल तक या अनवस्थित रूप से जैसे-तैसे ही सामायिक की हो तो (तस्स मिच्छा मि दुक्कडं) मैं आलोचना करता हूँ। मेरा वह पाप सब निष्फल हो। १०. देशावकाशिकव्रत के अतिचार दसवां देशावकाशिकव्रत - दिन प्रति प्रभात से प्रारम्भ करके पूर्वादिक छहों दिशा में जितनी भूमिका की मर्यादा रक्खी हो, उसके उपरान्त आगे जाने का तथा दूसरों को भेजने का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा। जितनी भूमिका की मर्यादा रक्खी है, उसमें जो द्रव्यादिक की मर्यादा की है, उसके उपरान्त उपभोग-परिभोग निमित्त से भोगने का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं एगविहं, तिविहेणं न करेमि, मणसा, वयसा, कायसा एवं दसवें देसावगासिक व्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोउं – आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सद्दाणुवाए, रूवाणुवाए, बहिया पुग्गलपक्खेवे, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। भावार्थ - छठे दिग्व्रत में सदा के लिये जो दिशाओं का परिमाण किया है, देशावकाशिक व्रत में उसका प्रतिदिन संकोच किया जाता है। मैं उस संकोच किये गये दिशाओं के परिमाण से बाहर के क्षेत्र में जाने का तथा दूसरों को भेजने का त्याग करता हूँ। एक दिन और एक रात तक परिमाण की गई दिशाओं से आगे मन, वचन, काया से न स्वयं जाऊंगा और न दूसरों को भेजूंगा। मर्यादित क्षेत्र में द्रव्यादि का जितना परिमाण किया है, उस परिमाण के सिवाय उपभोग-परिभोग निमित्त से भोगने का त्याग करता हूँ। मन, वचन, काया से मैं उनका सेवन नहीं करूंगा। देशावकाशिक व्रत की आराधना में यदि मैंने मर्यादा से बाहर की कोई वस्तु मंगाई हो, मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में किसी वस्तु को मंगाने के लिये या लेन-देन करने के लिये किसी को भेजा हो, मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में रहने वाले मनुष्य को शब्द करके अपना ज्ञान कराया हो, मर्यादा से बाहर के मनुष्यों को बुलाने के लिये अपना या पदार्थ का रूप दिखाया हो या कंकर आदि फेंककर अपना ज्ञान कराया हो तो मैं आलोचना करता हूं। मेरा वह सब पाप निष्फल हो। ११. पौषधव्रत के अतिचार ___ ग्यारहवां पडिपुण्णपौषधवत - असणं पाणं खाइमं साइमं का पच्चक्खाण, अबभसेवन का पच्चक्खाण, अमुक मणि-सुवर्ण का पच्चक्खाण, माला-वनग-विलेवण का पच्चक्खाण, सत्थ मुसलादिक सावज जोग सेवन का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा, ऐसी मेरी सद्दहणा प्ररूपणा तो है, पौषध का अवसरे पौषध करूं

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