________________
बारह व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण ]
[११७
६. दन्तवाणिज्य - हाथी के दांत, चमरी गाय आदि के बाल, उलूक आदि के नाखून, शंख आदि की अस्थि, शेर चीता आदि के चर्म और हंस आदि के रोम और अन्य त्रस जीवों के अंगों को उनके उत्पत्ति स्थान में जा कर लेना या पेशगी द्रव्य दे कर खरीदना 'दन्तवाणिज्य' कहलाता है ।
७. लाक्षावाणिज्य - लाख, मेनसिल, नील, धातकी के फूल, छाल आदि, टंकण खार आदि पाप के कारण हैं, अत: उनका व्यापार भी पाप का कारण है । यह 'लाक्षावाणिज्य' कर्मादान कहलाता है । ८- ९. रस-केश वाणिज्य- मक्खन, चर्बी, मधु और मद्य आदि बेचना 'रसवाणिज्य' कहलाता है और द्विपद एवं चतुष्पद अर्थात् पशु-पक्षी आदि का विक्रय करने का धंधा करना 'केशवाणिज्य' कहलाता है। १०. विषवाणिज्य विष, शस्त्र, हल, यंत्र, लोहा और हरताल आदि प्राणघातक वस्तुओं का व्यापार करना 'विषवाणिज्य' कहलाता है ।
११. यंत्रपीड़नकर्म - तिल, ईख, सरसों, और एरंड आदि को पीलने का तथा रहट आदि चलाने का धंधा करना, तिलादि देकर तेल लेने का धंधा करना और इस प्रकार के यंत्रों को बनाकर आजीविका चलाना 'यंत्रपीड़नकर्म' कहलाता है ।
१२. निर्लंछनकर्म - जानवरों की नाक बींधना नत्थी करना, आंकना - डाम लगाना, बधियाखस्सी करना, ऊंट आदि की पीठ गालना और कान का तथा गल-कंबल का छेदन करना 'निलछनकर्म' कहा गया है।
-
१३. असतीपोषणकर्म मैना, तोता, बिल्ली, कुत्ता, मुर्गा एवं मयूर पालना, दासी का पोषण करना - किसी को दास-दासी बनाकर रखना और पैसा कमाने के लिये दुश्शील स्त्रियों को रखना 'अस पोषणकर्म कहलाता है ।
-
१४-१५. दवदाव तथा सरशोषणकर्म - आदत के वश होकर या पुण्य समझ कर दव- जंगल में आग लगाना 'दुव-दाव' कहलाता है और तालाब, नदी, द्रह आदि को सुखा देना 'सरशोषणकर्म ' है ।
टिप्पण - उक्त पंद्रह कर्मादान दिग्दर्शन के लिये हैं। इनके समान विशेष हिंसाकारी अन्य व्यापारधंधे भी हैं, जो श्रावक के लिये त्याज्य हैं । यही बात अन्यान्य व्रतों के अतिचारों के संबंध में भी समझनी चाहिये। एक - एक व्रत के पांच-पांच अतिचारों के समान अन्य अतिचार भी व्रत रक्षा के लिये त्याज्य हैं । - योगशास्त्र, तृतीय प्र. १०१-११३
८. अनर्थदण्डविरमणव्रत के अतिचार
आठवां अणट्ठादण्डविरमणव्रत - चउव्विहे अणट्ठादंडे पण्णत्ते तं जहा अवज्झाणायरिए पमायायरिये हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे (जिसमें आठ आगार आए वा, राए वा, नाए वा, परिवारे