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लेना ।
करना ।
दसविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा
पिछले अध्यायों में प्रतिक्रमण एवं कायोत्सर्ग द्वारा पूर्वसञ्चित कर्मों का क्षय कहा गया है । इस छठे अध्ययन में नवीन बंधने वाले कर्मों का निरोध कहा जाता । अथवा पांचवें अध्ययन में कायोत्सर्ग द्वारा अतिचार रूप व्रत की चिकित्सा का निरूपण किया गया है। चिकित्सा के अनन्तर गुण की प्राप्ति होती है, अत: 'गुणधारक' नामक इस प्रत्याख्यान अध्ययन में मूलोत्तर गुण की धारणा कहते हैं ।
भविष्य में लगने वाले पापों से निवृत्त होने के लिये गुरुसाक्षी या आत्मसाक्षी से हेय वस्तु के त्याग करने को प्रत्याख्यान कहते हैं । प्रत्याख्यान भविष्यत्कालिक पापों का निरोधक है। वह दस प्रकार का है वैयावृत्य आदि किसी अनिवार्य कारण से, नियत समय से पहले ही तप कर
( १ ) अनागत
अणागयमइक्कंतं, कोडीसहियं नियंटियं चेव । सागारमणागारं, परिमाणकडं निरवसेसं । संकेयं चेव अद्धाए, पच्चक्खाणं भवे दसहा ॥
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षष्ठाध्ययन : प्रत्याख्यान
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(२) अतिक्रान्त कारणवश नियत समय के बाद तप करना ।
(३) कोटिसहित - जिस कोटि (चतुर्थभक्त आदि के क्रम) से तप प्रारम्भ किया, उसी से समाप्त
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( ४ ) नियन्त्रित - वैयावृत्य आदि प्रबल कारणों के हो जाने पर भी संकल्पित तप का परित्याग न करना। (यह प्रत्याख्यान वज्रऋषभनाराचसंहननधारी अनगार ही कर सकते हैं ।)
(५) साकार - जिसमें उत्सर्ग (अवश्य रखने योग्य अण्णत्थणाभोग और सहसागाररूप) तथा अपवाद रूप आगार रखे जाते हैं, उसे साकार या सागार कहते हैं ।
(६) अनाकार जिस तप में अपवादरूप आगार न रखे जायें, उसे अनाकार कहते हैं ।
(७) परिमाणकृत - जिसमें दत्ति आदि का परिमाण किया जाय ।
(८) निरवशेष जिसमें अनादि का सर्वथा त्याग हो ।
( ९ ) संकेत - जिसमें मुट्ठी खोलने आदि का संकेत हो, जैसे- "मैं जब तक मुट्ठी नहीं खोलूँगा तब तक मेरे प्रत्याख्यान है " इत्यादि ।
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