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## [The Transgressions of the Twelve Vows]
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Samayika is the practice of abstaining from all sinful actions of mind, speech, and body, and not causing others to do so. If I have had evil thoughts, spoken harsh or sinful words, moved my body, stretched or contracted my limbs, or performed any other action in a way that is not in accordance with the principles of Samayika, or if I have forgotten the time of Samayika, or if I have performed Samayika for a short time or in an unstable manner, then I confess my transgression. May all my sins be nullified.
10. Transgressions of the Desavakasika Vrat
The tenth Desavakasika Vrat - From dawn onwards, I will not go beyond the limits of the area that has been set for the six directions, nor will I send others beyond those limits. I will not do this with my mind, speech, or body. I will not consume or use anything beyond the limits of the area that has been set for the use of material things. I will not do this with my mind, speech, or body.
There are five transgressions of the Desavakasika Vrat that should be known and avoided. These are:
- Seeking something from outside the limits.
- Sending someone outside the limits.
- Making someone aware of your presence by speaking to them.
- Making someone aware of your presence by showing yourself or your belongings.
- Making someone aware of your presence by throwing stones or other objects.
If I have committed any of these transgressions, then I confess my transgression. May all my sins be nullified.
11. Transgressions of the Paushdha Vrat
The eleventh Paushdha Vrat - I will not eat any food that is not permitted, drink any drink that is not permitted, wear any jewelry or gold that is not permitted, wear any garlands, perfumes, or cosmetics that are not permitted, or use any tools, weapons, or other objects that are not permitted. I will not do this with my mind, speech, or body. I will not do this for the entire day and night. This is my vow. I will observe the Paushdha Vrat on the occasion of the Paushdha Vrat.
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बारह व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण ]
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होती है, उसको सामायिक कहते हैं । इसलिये मैं नियमपर्यन्त मन, वचन, काया से पापजनक क्रिया न करूंगा
और न दूसरों से करवाऊंगा। यदि मैंने सामायिक के समय में बुरे विचार किए हों, कठोर वचन या पापजनक वचन बोले हों, अयतनापूर्वक शरीर से चलना-फिरना, हाथ पांव को फैलाना-संकोचना आदि क्रियाएँ की हों, सामायिक करने का काल याद न रखा हो तथा अल्पकाल तक या अनवस्थित रूप से जैसे-तैसे ही सामायिक की हो तो (तस्स मिच्छा मि दुक्कडं) मैं आलोचना करता हूँ। मेरा वह पाप सब निष्फल हो। १०. देशावकाशिकव्रत के अतिचार
दसवां देशावकाशिकव्रत - दिन प्रति प्रभात से प्रारम्भ करके पूर्वादिक छहों दिशा में जितनी भूमिका की मर्यादा रक्खी हो, उसके उपरान्त आगे जाने का तथा दूसरों को भेजने का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा। जितनी भूमिका की मर्यादा रक्खी है, उसमें जो द्रव्यादिक की मर्यादा की है, उसके उपरान्त उपभोग-परिभोग निमित्त से भोगने का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं एगविहं, तिविहेणं न करेमि, मणसा, वयसा, कायसा एवं दसवें देसावगासिक व्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोउं – आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सद्दाणुवाए, रूवाणुवाए, बहिया पुग्गलपक्खेवे, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
भावार्थ - छठे दिग्व्रत में सदा के लिये जो दिशाओं का परिमाण किया है, देशावकाशिक व्रत में उसका प्रतिदिन संकोच किया जाता है। मैं उस संकोच किये गये दिशाओं के परिमाण से बाहर के क्षेत्र में जाने का तथा दूसरों को भेजने का त्याग करता हूँ। एक दिन और एक रात तक परिमाण की गई दिशाओं से आगे मन, वचन, काया से न स्वयं जाऊंगा और न दूसरों को भेजूंगा। मर्यादित क्षेत्र में द्रव्यादि का जितना परिमाण किया है, उस परिमाण के सिवाय उपभोग-परिभोग निमित्त से भोगने का त्याग करता हूँ। मन, वचन, काया से मैं उनका सेवन नहीं करूंगा। देशावकाशिक व्रत की आराधना में यदि मैंने मर्यादा से बाहर की कोई वस्तु मंगाई हो, मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में किसी वस्तु को मंगाने के लिये या लेन-देन करने के लिये किसी को भेजा हो, मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में रहने वाले मनुष्य को शब्द करके अपना ज्ञान कराया हो, मर्यादा से बाहर के मनुष्यों को बुलाने के लिये अपना या पदार्थ का रूप दिखाया हो या कंकर आदि फेंककर अपना ज्ञान कराया हो तो मैं आलोचना करता हूं। मेरा वह सब पाप निष्फल हो। ११. पौषधव्रत के अतिचार
___ ग्यारहवां पडिपुण्णपौषधवत - असणं पाणं खाइमं साइमं का पच्चक्खाण, अबभसेवन का पच्चक्खाण, अमुक मणि-सुवर्ण का पच्चक्खाण, माला-वनग-विलेवण का पच्चक्खाण, सत्थ मुसलादिक सावज जोग सेवन का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा, ऐसी मेरी सद्दहणा प्ररूपणा तो है, पौषध का अवसरे पौषध करूं