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है, अर्थात् एकबार सिद्धि प्राप्त हो जाने पर फिर कभी वहां से वापिस नहीं लौटना पड़ता ।
यहां विचारणीय है कि अनन्त और अक्षत (अक्षय) विशेषणों का प्रयोग करने के पश्चात 'अपुनरावृत्ति' विशेषण के प्रयोग की क्यों आवश्यकता हुई ? समाधान यह है कि कतिपय दार्शनिकों कि ऐसी मान्यता है। कि मुक्तात्मा जब अपने तीर्थ की अवहेलना होते हुए देखते हैं तो उसके रक्षण के लिये मोक्ष को छोड़ कर पुन: संसार में आ जाते हैं। इस मान्यता को भ्रान्त बतलाने के लिये इस विशेषण का प्रयोग किया गया है। जैसे बीज के दग्ध हो जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार कर्मबीज के भस्म हो जाने पर भवअंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि पूर्ववर्ती कर्म ही नवीन कर्म को उत्पन्न करता है, एक बार कर्म का समूल नाश हो जाने पर नवीन कर्मों का उद्भव सम्भव नहीं है और कर्म के अभाव में पुनः संसार में जन्म होना सम्भव नहीं । वस्तुतः मोक्ष-पद सादि और अनन्त है । इस आशय को व्यक्त करने के लिये 'अपुनरावृत्ति' पद का प्रयोग किया गया है।
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[ आवश्यकसूत्र
'नमोत्थुणं' पाठ दो बार पढ़ा जाता है- अरिहन्त भगवन्तों को लक्ष्य करके और सिद्ध भगवन्तों को लक्ष्य करके । जब अरिहन्तों को लक्ष्य करके पढ़ा जाता है तो 'ठाणं संपाविउकामाणं' ऐसा बोला जाता है। और जब सिद्ध भगवन्तों की स्तुति की जाती है तो 'ठाणं संपत्ताणं' ऐसा पाठ बोला जाता है। दोनों पाठों के अर्थ में अन्तर इस प्रकार है - 'ठाणं संपाविउकामाणं' अर्थात् मुक्ति पद को प्राप्त करने का लक्ष्य रखने वाले, ध्येय वाले।'ठाणं संपत्ताणं' का अर्थ है मुक्ति पद को जो प्राप्त कर चुके हैं।
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