Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 180
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ] [१०९ अनन्त है, तथापि अहिंसा, तप, संयम आदिरूप व्यवहार धर्म की मर्यादाओं में विभिन्न युगों में जो विकृति आ जाती है, उसे दूर करके धर्म के वास्तविक स्वरूप को, उसकी मर्यादाओं को काल के अनुरूप प्रस्थापित करने के कारण भगवान् आदिकर कहलाते हैं। पुरिससीह – पुरुषसिंह-वन्य पशुओं में सिंह सबसे अधिक पराक्रमी गिना जाता है और निर्भय होकर विचरता है । इसी प्रकार भगवान् अनन्त पराक्रमी और निर्भय होने के कारण पुरुषसिंह-पुरुषों में सिंह के समान है। पुरिसवरगंधहत्थी – पुरुषवरगंधहस्ती-गन्धहस्ती वह कहलाता है जिसके गण्डस्थल से सुगन्धित मद झरता रहता है । उस मद की सुगन्ध की अतिशय उग्रता के कारण अन्य हस्ती घबरा जाते हैं-दूर भाग जाते हैं। गंधहस्ती मांगलिक भी माना जाता है। भगवान् के सन्मुख जाते ही अन्य वादी निर्मद हो जाते हैं , टिक नहीं सकते हैं और भगवान् परम मांगलिक भी हैं, अतएव पुरुषों में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान हैं। . लोगनाह – लोकनाथ-योग अर्थात् अप्राप्त पदार्थ को प्राप्त कराने वाला, क्षेम अर्थात् प्राप्त पदार्थ की रक्षा करने वाला 'नाथ' कहलाता है - 'योगक्षेमकरो नाथः।' भगवान् अप्राप्त मंगलमय धर्म की प्राप्ति कराने वाले और प्राप्त धर्म की विविध विधियों के उपदेश द्वारा रक्षा करने वाले हैं। भगवान् विश्व के समस्त प्राणियों को समभाव से धर्म का उपदेश करते हैं, अतएव समग्र लोक के नाथ हैं। लोगपईव – लोकप्रदीप-लोक में अथवा लोक के लिये उत्कृष्ट दीपक । लौकिक दीपक परिमित क्षेत्र में बाह्य अन्धकार को विनष्ट करके प्रकाश करता है, परन्तु भगवान् प्र-दीप-प्रकृष्ट दीप हैं, जो अनादि काल से आत्मा में रहे हुए मिथ्यात्वजन्य अज्ञानान्धकार को सदा के लिये दूर करते हैं। दीप-प्रकाश में अत्यल्प और स्थूल दृष्टिगोचर हो सकने वाले पदार्थ ही भासित होते हैं, किन्तु भगवान् के केवलज्ञान रूपी लोकोत्तर प्रदीप में त्रिकाल सम्बन्धी, सूक्ष्म-स्थूल, इन्द्रिय-गम्य, अतीन्द्रिय, सभी पदार्थ प्रतिभासित होते हैं । द्रव्य-दीप में स्थूल पदार्थ भी अपने सम्पूर्ण रूप में दिखाई नहीं देते, केवल उनका रूप और आकार ही दृष्टिगोचर होता है, भगवान् के ज्ञानप्रदीप में प्रत्येक पदार्थ अपने अनन्त-अनन्त गुण-पर्यायों समेत प्रतिबिम्बित होता है । द्रव्य-दीप तैलक्षय, पवन के वेग आदि कारणों से बुझ जाता है, परन्तु भगवान् का ज्ञानप्रदीप एकबार प्रज्वलित होकर सदैव प्रज्ज्वलित ही रहता है । अतएव वह दीप नहीं प्रदीप-लोकोत्तर दीनक हैं । भगवान् का ज्ञान भगवान् से अभिन्न है और वह समस्त लोकों के लिये प्रकाश-प्रदाता है, अतएव भगवान् लोकप्रदीप हैं । ___ अपुणरावित्ति – अपुनरावृत्ति - सिद्धिगति-स्थान के लिये अनेक विशेषणों का यहां प्रयोग किया गया है। वे विशेषण सुगम हैं । मोक्ष शिव अर्थात् सब प्रकार के उपद्रवों से रहित है, अचल - स्थिर है, अरुज - सभी प्रकार के बाह्याभ्यन्तर रोगों से रहित है, अनन्त है – उसका कदापि अंत नहीं होता, अक्षत है, अर्थात् उसमें कभी क्षति-न्यूनता नहीं आती, अव्याबाध है - समस्त बाधओं से विवर्जित है और अपुनरावृत्ति

Loading...

Page Navigation
1 ... 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204