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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
( मरणसमाधि- प्रकीर्णक और संस्तारक - प्रकीर्णक) रागेण व दोसेण व, अहवा अकयण्णुणा पडिनिवेसेणं । जं मे किं चि विभणिअं तमहं तिविहेणं खामेमि ॥ ४ ॥
भावार्थ – आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल, और गण, इनके ऊपर मैंने जो कुछ कषाय किये हों, उन सब से मैं मन, वचन और काया से क्षमा चाहता हूँ ॥ १ ॥
अञ्जलिबद्ध दोनों हाथ जोड़कर समस्त पूज्य मुनिगण से मैं अपराध की क्षमा चाहता हूँ और मैं भी उन्हें क्षमा करता हूँ ॥ २ ॥
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धर्म में चित्त को स्थिर करके सम्पूर्ण जीवों से मैं अपने अपराध की क्षमा चाहता हूँ और स्वयं भी उनके अपराध को क्षमा करता हूँ ॥ ३ ॥
राग-द्वेष, अकृतज्ञता अथवा आग्रह वश मैंने जो कुछ भी कहा हो, उसके लिये मैं मन, वचन काया से सभी से क्षमा चाहता हूँ ॥ ४ ॥
सव्वे जीवा खमंतु मे । वेरं मज्झं न केणइ ॥ निंदिय गरिहिय दुगंछियं सम्मं । वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥
खामेमि सव्वे जीवा, मित्ती मे सव्वभूएसु', एवमहं आलोइय, तिविहेण पडिक्कंतो,
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भावार्थ – मैंने किसी जीव का अपराध किया हो तो मैं उससे क्षमा चाहता हूँ। सभी प्राणी मुझे क्षमा करें। संसार के प्राणिमात्र से मेरी मित्रता है, मेरा किसी से वैर-विरोध नहीं है।
मैं अपने पापों की आलोचना, निंदा, गर्हा, और जुगुप्सा के द्वारा तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन और काय से प्रतिक्रमण कर, पापों से निवृत्त होकर चौबीस तीर्थंकर देवों की वन्दना करता हूँ ।
विवेचन मन भावनाओं का भण्डार । इसमें असंख्य शुभाशुभ भावनाएँ विद्यमान रहती हैं और इन शुभाशुभ भावनाओं के फलस्वरूप हर क्षण अनन्तानन्त कर्म - परमाणुओं का आत्मा के साथ बन्ध होता रहता है। शुभ भावनाओं से शुभ कर्मों का और अशुभ भावनाओं से अशुभ कर्मों का। इन बन्धनों के कारण ही आत्मा अनादि काल से चौदह राजू परिमित लोक में, चौरासी लाख जीव योनियों में परिभ्रमण करता हुआ पौद्गलिक अस्थायी सुख-दुःखों का भोग भी करता आ रहा है। सुख की अपेक्षा आत्मा ने दुःख एवं पीड़ाएँ बहुत सहन की हैं। कोटानुकोटि जन्मों के बाद आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल, मानव जन्म, आदि दस बोलों की जीव को प्राप्ति हुई है और साथ ही वीतराग वाणी श्रवण करने का तथा सन्त समागम का सुअवसर भी प्राप्त हुआ
१. सव्व जीवेसु, इति जिनदास महत्तराः ।