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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
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आप मंगलिक हो, उत्तम हो, हे स्वामिन्! हे नाथ! आप इस भव, परभव एवं भव-भव में सदाकाल
शरण
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दूसरे पद श्री सिद्ध भगवान् पन्द्रह भेदे अनंत सिद्ध हुए हैं - तीर्थसिद्धा, अतीर्थसिद्धा, तीर्थंकरसिद्धा, अतीर्थंकरसिद्धा, स्वयं बुद्धसिद्धा, प्रत्येकबुद्धसिद्धा, बुद्धबोधितसिद्धा, स्त्रीलिंगसिद्धा, पुरुषलिंगसिद्धा, नपुंसकलिंगसिद्धा, स्वलिंगसिद्धा, अन्यलिंगसिद्धा, गृहस्थलिंगसिद्धा, एकसिद्धा, अनेकसिद्धा । जहां जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, भय नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, दुःख नहीं, दारिद्र्य नहीं, कर्म नहीं, काया नहीं, मोह नहीं, माया नहीं, चाकर नहीं, ठाकर नहीं, भूख नहीं, तृषा नहीं, ज्योत में ज्योत विराजमान, सकल कार्य सिद्ध करके चवदे प्रकारे पन्द्रह भेदे अनंत सिद्ध भगवान् हुए हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्त सुख, अटल अवगाहना, अमूर्तिक, अगुरुलघु, अनन्त वीर्य्य, ये आठ गुण करके सहित हैं ।
ऐसे श्री सिद्ध भगवन्त जी महाराज आपकी दिवस सम्बन्धी अविनय अशातना की हो तो बारम्बार सिद्ध भगवान्! मेरा अपराध क्षमा करिये। हाथ जोड़, मान मोड़, शीश नमा कर तिक्खुत्तो के पाठ से एक हजार आठ बार नमस्कार करता हूँ । यावत् भव-भव सदा काल शरण हो ।
तीसरे पद श्री आचार्य महाराज छत्तीस गुण करके विराजमान हैं, पांच महाव्रत पाले, पांच आचार पाले, पांच इन्द्रिय जीते, चार कषाय टाले, नववाड़ सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य पाले, पांच समिति, तीन गुप्ति शुद्ध आराधे, ये छत्तीस गुण और आठ सम्पदा ( १ : आचारसम्पदा, २. श्रुतसम्पदा, ३. शरीरसम्पदा, ४. वचनसम्पदा, ५. वाचनासम्पदा, ६. मतिसम्पदा, ७. प्रयोगमतिसम्पदा, ८. परिज्ञासम्पदा) सहित हैं ।
ऐसे आचार्य महाराज न्यायपक्षी, भद्रिक परिणामी, त्यागी, वैरागी, महागुणी, गुणानुरागी हैं। ऐसे श्री आचार्य महाराज आपकी दिवस एवं रात्रि सम्बन्धी अविनय आशातना की हो तो बारम्बार मेरा अपराध क्षमा करिये। हाथ जोड़, मान मोड़, शीश नमा कर तिक्खुत्तो के पाठ से एक हजार आठ बार नमस्कार करता हूँ । यावत् भव-भव सदा काल शरण हो ।
चौथे पद श्री उपाध्याय जी महाराज पच्चीस गुण करके सहित (ग्यारह अंग, बारह उपांग चरणसत्तरी, करणसत्तरी इन से युक्त) हैं तथा अंग- उपांग सूत्रों को मूल अर्थ सहित जानें ।
ग्यारह अंग आचारांग, सूयगडांग, ठाणांग, समवायांग, विवाहपन्नति (भगवती), णायाधम्मकहा (ज्ञाताधर्मकथा), उपासकदसा, अंतगडदसा, अणुत्तरोववाई, पण्हावागरण (प्रश्नव्याकरण), विवागसु (विपाक श्रुत) ।
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बारह उपांग उववाई, रायप्पसेणी, जीवाजीवाभिगम, पन्नवणा, जम्बूदीवपन्नत्ति, चन्दपन्नत्ति, सूरपन्नत्ति, निरयावलिया, कप्पवडंसिया, पुप्फिया, पुप्फ चूलिया, वह्निदशा ।