Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 168
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ] [९७ आलोच के , पडिक्कम के , निन्द के निःशल्य होकर के सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि, सव्वं मुसावायं पच्चक्खामि, सव्वं अदिण्णादाणं पच्चक्खामि, सव्वं मेहुणं पच्चक्खामि, सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि, सव्वं कोहं माणं जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि, सव्वं अकरणिज जोगं पच्चक्खामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, करतंपि अन्नं न समणुजाणामि मणसा, वयसा, कायसा ऐसे अठारह पापस्थानक पच्चक्ख कर, सव्वं असणं पाणं, खाइम, साइम, चउव्विहंपि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए ऐसे चारों आहार पच्चक्ख कर जं पि य इमं शरीरं इठें, कंतं, पियं, मणुण्णं, मणाम, धिजं, विसासियं सम्मयं, अणुमयं, बहुमयं भण्डकरण्डसमाणं रयणकरण्डभूयं, मा णं सीयं, मा णं उण्हं, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं बाला, मा णं चोरा, मा णं दंसमसगा, मा णं वाइयं, पित्तियं, कप्फियं, संभीयं,सा .सण्णिवाइयं विविहा रोगायंका परिसहा उवसग्गा फासा फसन्त.एवं पियणं चरमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं वोसिरामि त्ति कटु ऐसे शरीर को वोसिरा कर कालं अणवकंखमाणे विहरामि, ऐसी मेरी सद्दहणा, प्ररूपणा तो है, फरसना करूं तब शुद्ध होऊं , ऐसे अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा, झूसणा, आराहणाए पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोऊ इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। भावार्थ - मृत्यु का समय निकट आने पर संलेखना तप का प्रीति पूर्वक सेवन करने के लिये सर्वप्रथम पौषधशाला का प्रमार्जन करे। मल-मूत्र त्यागने की भूमि का प्रतिलेखन करे। चलने-फिरने की क्रिया का प्रतिक्रमण कर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह करके पल्यंक (पालथी) आदि आसन लगाकर दर्भादिक के आसन पर बैठे और हाथ जोड़कर शिर से आवर्तन करता हुआ मस्तक पर हाथ जोड़कर 'नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं' इस प्रकार बोल कर सिद्ध भगवान् को नमस्कार करे। तत्पश्चात् 'नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपाविउकामाणं' ऐसा बोलकर वर्तमान काल में महाविदेह क्षेत्र में जो तीर्थंकर विचर रहे हैं, उनको नमस्कार करे। फिर अपने धर्माचार्य जी महाराज को नमस्कार करे। साधु साध्वी, श्रावक श्राविका, इस प्रकार चतुर्विध संघ से क्षमायाचना करे, पुनः समस्त जीवों से क्षमा मांगे। पहले धारण किये हुये व्रतों में जो अतिचार लगे हों उनकी आलोचना और निन्दा करे। सम्पूर्ण हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य (मैथुन) और अपरिग्रह-इन पांच पापों का तथा क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य आदि अठारह पापस्थानों का तथा सम्पूर्ण पापजन्य योग का तीन करण और तीन योग से त्याग करे । जीवनपर्यन्त चारों प्रकार के आहार का त्याग करे । इसके पश्चात् जो अपना शरीर मनोज्ञ है, उस पर से ममत्व हटावे और संलेखना संबंधी पापों अतिचारों को दूर करके शुद्ध अनशन करे । इस प्रकार श्रद्धा और प्ररूपणा की शुद्धि के लिये नित्य पाठ करे और अन्तिम समय में स्पर्शना द्वारा शुद्ध हो। विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार है – इटुं – इष्ट, इच्छानुकूल । कंतं – कमनीय । पियं -

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