Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 167
________________ ९६] [ आवश्यकसूत्र जीवन का महान् गुण है । प्रस्तुत सूत्र में अखण्ड आचार-चारित्र को पालने वाले मुनिराजों को साधक शिर से, मन से और मस्तक से वन्दन करता है, अथवा 'वन्दन करता हूँ' ऐसी प्रतिज्ञा करता है। अठारह हजार शीलांग – शास्त्रकारों ने अठारह हजार शील-अंगों की व्याख्या इस प्रकार की है जोगे करणे सण्णा, इंदिय भोम्माइ समणधम्मे य। अण्णोण्णेहि अब्भत्था, अट्ठारह सीलसहस्साई॥ अर्थात् तीन योग, तीन करण, चार संज्ञाएँ, पांच इन्द्रियां, दस प्रकार के पृथ्वीकाय आदि जीव और दस श्रमणधर्म-इन सबका परस्पर गुणाकार करने से शील के अठारह हजार भेद होते हैं। 'शील' का अर्थ है 'आचार'। भेदानुभेद की दृष्टि से आचार के अठारह हजार प्रकार होते हैं। दसविध श्रमणधर्म-क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुता, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग एवं ब्रह्मचर्य । दशविध श्रमण धर्म के धारकमुनि, पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावरों एवं द्वीन्द्रिय आदि चार त्रसों और एक अजीव-इस प्रकार दश का आरंभ नहीं करते हैं। अठारह हजार शीलाङ्ग रथ इस प्रकार है – १. पृथ्वीकाय आरंभ, २. अप्काय आरंभ, ३. तेजस्काय आरंभ, ४. वायुकाय आरंभ, ५. वनस्पतिकाय आरंभ, ६. द्वीन्द्रिय आरंभ, ७. त्रीन्द्रिय आरंभ, ८. चतुरिन्द्रिय आरंभ, ९. पंचेन्द्रिय आरंभ, १०. अजीव आरंभ। ये दस भेद शान्ति के हुए, इसी प्रकार मुक्ति, आर्जव, यावत् ब्रह्मचर्य के ये सब श्रोत्रेन्द्रिय के साथ १०० भेद हुए, इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय के १००, घ्राणेन्द्रिय के १००, रसनेन्द्रिय के १००, स्पर्शेन्द्रिय के १००, ये सब आहारसंज्ञा के ५०० भेद हुए, इसी प्रकार भयसंज्ञा के ५००, मैथुनसंज्ञा के ५००, परिग्रहसंज्ञा के ५००, ये सब २००० भेद हुए, इन्हें न करने , न कराने और न अनुमोदन करने के द्वारा तिगुणा करने पर ६००० भेद हुए, फिर इन्हें मन, वचन और काया से तिगुणा करने पर १८००० भेद शीलाङ्गरथ के होते हैं। बड़ी संलेखना का पाठ अह भंते! अपच्छिममारणंतिय संलेहणा झूसणा आराहणा पौषधशाला पूंजे, पूंज के उच्चारपासवणभूमिका पडिलेहे, पडिलेह के, गमणागमणे, पडिक्कमे, पडिक्कम के , दर्भादिक संथारा संथारे, संथार के दर्भादिक संथारा दुरूहे, दुरूह के पूर्व तथा उत्तर दिशा सन्मुख पल्यांकादिक आसन से बैठे, बैठ के 'करयलसंपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी 'नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं ऐसे अनन्त सिद्ध भगवान् को नमस्कार करके, 'नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपाविउकामाणं' जयवन्ते वर्तमान काले महाविदेह क्षेत्र में विचरते हुये तीर्थंकर भगवान् को नमस्कार करके अपने धर्माचार्यजी महाराज को नमस्कार करता हूँ। साधु साध्वी प्रमुख चारों तीर्थ को खमाकर, सर्व जीव राशि को खमाकर, पहले जो व्रत आदरे हैं उनमें जो अतिचार दोष लगे हों, वे सर्व

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