Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 165
________________ ९४] [ आवश्यकसूत्र निर्मल काँच की पेटी में बन्द होते हुये भी व्यक्ति बाहर के दृश्यमान पदार्थों को देख सकता है, किन्तु लोहे की पेटी में बन्द व्यक्ति नहीं देख सकता। कोई तैराक, तैरने की कला जिसको याद हो, गहरे पानी में तल तक पहुंच कर टनों पानी उसके सिर पर होने पर भी डूब नहीं सकता, किन्तु जो तैरने की कला से अनभिज्ञ है, थोड़े से पानी में डूब सकता है। जैनदर्शन में साधना अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से ही प्रारम्भ होती है । माया - मृषाविवर्जित - माया मृषा से रहित । माया मृषा अठारह महापापों में सत्तरहवां महापाप है । तीन शल्य में प्रथम शल्य है। जैसे पैर में शूल गहरा उतर जाता है और दिखाई तो नहीं देता, किन्तु पथिक कदम शूल की चुभन के कारण पथ पर बढ़ नहीं सकते, इसी प्रकार मायावी अर्थात् अपने दोषों को छिपाने वाले साधक का एक कदम भी अपनी साध्य की सिद्धि के लिये साधना पथ पर नहीं बढ़ सकता है । अंधेरे में जैसे सांप और रस्सी को नहीं पहचाना जा सकता है, इसी प्रकार माया से मूढ़ बना व्यक्ति अधर्म और धर्म की पहचान भी नहीं कर सकता । अतः साधक को चाहिये कि वह अपने पूर्वकृत पापों की वर्तमान में आलोचना और प्रायश्चित्त के द्वारा शुद्धि कर ले। स्वस्थ शरीर में यदि फोड़ा हो जाय तो नश्तर के द्वारा डाक्टर आपरेशन करके उसका मवाद निकाल सकता है। बिना आपरेशन के यदि मल्हम पट्टी कर दी जायेगी तो मवाद पूरे शरीर में भी फैल सकता I अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु प्रस्तुत पाठ के अन्त में अढ़ाई द्वीप, पन्द्रह कर्मभूमियों में विद्यमान समस्त साधुओं को मस्तक नमाकर नमस्कार किया गया है। अभिप्राय यह है 1 जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वीप और अर्ध पुष्करद्वीप तथा अपहरण की अपेक्षा से लवण एवं कालोदधि समुद्र और उनमें भी पन्द्रह क्षेत्र - कर्मभूमियां ही श्रमण धर्म की साधना का क्षेत्र हैं। आगे के क्षेत्रों में न मानव है और न श्रमणधर्म की साधना है। अतः अढ़ाई द्वीप के मानव क्षेत्र में जो भी साधु, साध्वी, रजोहरण, पूंजनी और प्रतिग्रह अर्थात् पात्र को धारण करने वाले, पांच महाव्रतों के पालक और अठारह हजार शीलाङ्गरथ के धारक तथा अक्षत आचारवान् -आधाकर्म आदि ४२ दोषों को टालकर आहार लेने वाले, ४७ दोष टालकर आहार भोगने वाले, अखण्ड आचार को पालने वाले ऐसे स्थविरकल्पी, जिनकल्पी मुनिराजों को शिर से, मन से और मस्तक से वन्दना करता हूँ । - शिरसा, मनसा, मस्तकेन प्रस्तुत सूत्र में 'सिरसा, मणसा मत्थएण वंदामि' पाठ आता है। इसका अर्थ है - शिर से, मन से और मस्तक से वन्दना करता हूँ। प्रश्न हो सकता है कि शिर और मस्तक तो एक ही हैं, फिर इनका पृथक् उल्लेख क्यों किया गया ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है शिर समस्त शरीर में मुख्य है। अतः शिर से वन्दना करना अर्थात् शरीर से वन्दन करना । मन अन्तःकरण है, अतः यह मानसिक वन्दना का द्योतक है।

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