Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 164
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ] श्रम से तप:साधना से मुक्ति लाभ करते हैं, वे श्रमण कहलाते हैं । संयत का अर्थ है 'संयम में सम्यक् यतन करने वाला ।' अहिंसा, सत्य आदि कर्तव्यों में साधक को सदैव सम्यक् प्रयत्न करते रहना चाहिये। 'संजतो-सम्मं जतो, करणीयेषु जोगेषु सम्यक् प्रयत्नपर इत्यर्थः ' । सब प्रकार के सावद्य योगों से विरति निवृत्ति करने वाला, अर्थात् पहले किये पापों की निन्दा और भविष्यकाल के लिये संवर करके सकल पापों से रहित होना । विरत का अर्थ है — [ ९३ - प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा अर्थात् भूतकाल में किये गये पाप कर्मों को निन्दा एवं गर्हा के द्वारा प्रतिहत (विनष्ट) करने वाला और वर्तमान तथा भविष्य में होने वाले पाप कर्मों को नहीं करने का प्रतिज्ञा रूप प्रत्याख्यान के द्वारा परित्याग करने वाला । यह विशेष साधक की त्रैकालिक जीवन-शुद्धि का प्रतीक है। साधना का अर्थ है- पाप कर्मों पर त्रिकाल विजयी होना। कहा भी है- 'पडिहतं अतीतणिदणं- गरहणादीहिं, पच्चक्खातं सेसं अकरणतया पावकम्मं पावाचारं येण स तथा । ' - आचार्य जिनदास अनिदान – निदान का अर्थ है - निश्चय रूप से यथेष्ट प्राप्ति की आकांक्षा । अनिदान का अर्थ है अनासक्त भाव से किया जाने वाला तप आदि अनुष्ठान । जैसे किसी व्यापारी ने लाख रुपये का सामान खरीदना चाहा, यदि उसके पास में लाख रुपये से अधिक या लाख रुपये हैं तब तो वह मनचाहा लाख रुपये का माल खरीद सकेगा। किन्तु उसके पास लाख से कम हैं तो वह लाख रुपये का माल नहीं खरीद सकेगा। इसी प्रकार यदि साधक के पास पुण्य कर्म का आधिक्य है तो निदान करने पर उसे यथेष्ट ऋद्धि प्राप्त हो सकती है अन्यथा नहीं। लेकिन वह ऋद्धि निदान करने से उसी जन्म में परिसमाप्त हो जाती है। निदान के परिणामस्वरूप आगे अधोगति में उस आत्मा को उत्पन्न होना पड़ता है। आगमकारों के कथनानुसार वासुदेवों और प्रतिवासुदेवों को निदान से ही त्रिखण्ड के साम्राज्य आदि की ॠद्धि उपलब्ध होती है । तत्पश्चात् उनका अधोगमन ही होता है । इसलिये लोकोत्तर आप्त पुरुषों का साधकों के लिये निर्देश है कि वह निदान रहित तप करे और यह प्रतिज्ञा करे कि मुझे संसार के लुभावने भोगों में कोई आसक्ति नहीं है, मेरी साधना केवल आत्मशुद्धि के लिये है, मेरा ध्येय बन्धन नहीं मुक्ति है। ऐसे दृढ़ संकल्प को लेकर साधक अपनी साधना के द्वारा साध्य की उपलब्धि कर सकता है । दृष्टिसम्पन्न – दृष्टिसम्पन्न का अर्थ है - सम्यग्दर्शन रूप विशुद्ध दृष्टि से सम्पन्न । मोक्षाभिलाषी साधक के लिये शुद्ध दृष्टि का होना अनिवार्य है । क्योंकि सम्यग्दर्शन के अभाव में साधक को हिताहित का सच्चा विवेक नहीं हो सकता । सम्यग्दृष्टि साधक ही दस प्रकार के मिथ्यावादों से बच सकता है । सत्य और तथ्य का अन्वेषण शुद्ध दृष्टिसम्पन्न साधक ही कर सकता है। सम्यग्दर्शन वस्तुतः सब गुणों का मूल है। 'दिट्ठिसम्पन्नो'– अर्थात् 'सव्वगुण- मूलभूतगुणयुक्तत्वम्।' आचार्य जिनदास सम्यग्दृष्टि आत्मा संसार में रहकर भी सब कुछ यथावत देख सकता है, मिथ्यादृष्टि नहीं । जैसे

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