Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 163
________________ ९२] [ आवश्यकसूत्र जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि – मानव के मन की अनादिकालीन कामना यही रही है कि वह अपने कदम प्रगति की ओर बढ़ाये। चाहे विद्यार्थी हो अथवा व्यवसायी, चाहे कलाकार हो अथवा कोई अन्य साधक, वह चाहता यही है कि उसका निरन्तर विकास होता रहे और कदम आगे से आगे बढ़ते रहें। किन्तु एक बात विशेष रूप से ध्यान रखने कि है कि मनुष्य की वास्तविक प्रगति धन बढ़ा लेने में, प्रसिद्धि प्राप्त करने में, भौतिक ज्ञान प्राप्त करके विद्वान् कहलाने में अथवा नेता बन जाने में नहीं है, अपितु आत्मिक गुणों की वृद्धि करने में है। आत्मिक गुणों की वृद्धि के लिये अपनी भूलों का अथवा दोषों का अवलोकन करते रहना आवश्यक है । साधक जब तक छद्मस्थ है, घातिकर्मोदय से युक्त है, तब तक जीवन में दोषों का होना स्वाभाविक है। वह भूल या दोष जानकारी में हो सकता है अथवा अनजान में भी, अर्थात् असंयम अथवा दोष की स्मृति रहती है और कभी नहीं भी रहती है । साधक उन सब का प्रतिक्रमण करता है । इस प्रकार ज्ञानपूर्वक प्रतिक्रमण करने से साधक की प्रगति होती है। 'जं संभरामि' आदि से लेकर 'जं च न पडिक्कमामि' तक के सूत्रांश तक का सम्बन्ध 'तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिक्कमामि' से है। प्रस्तुत सूत्र का भाव यह है कि जिनका स्मरण करता हूँ, अथवा जिनका स्मरण नहीं करता हूँ, जिनका प्रतिक्रमण करता हूँ, जिनका प्रतिक्रमण नहीं करता हूँ, उन सब दैवसिक अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ। शंका – जिनका प्रतिक्रमण करता हूँ फिर भी उनका प्रतिक्रमण करता हूँ - इसका अर्थ क्या है? प्रतिक्रमण का भी प्रतिक्रमण करना कुछ संगत प्रतीत नहीं होता? आचार्य जिनदास ने उपर्युक्त शंका का सुन्दर समाधान किया है। वे- 'पडिक्कमामि' का अर्थ 'परिहरामि' करते हैं - 'संघयणादि-दौर्बल्यादिना जं पडिक्कमामि-परिहरामि करणिजं, जं च न पडिक्कमामि अकरणिजं।' - आवश्यकचूर्णि अर्थात् शारीरिक दुर्बलता आदि किसी विशेष परिस्थितिवश यदि मैंने करने योग्य सत्कार्य छोड़ दिया हो - अर्थात् न किया हो, और न करने योग्य कार्य किया हो तो उस सब अतिचार का प्रतिक्रमण करता समणोऽहं संजय-विरय पडिहय० ... इस सूत्रांश का अर्थ है - "मैं श्रमण हूँ, संयत-विरतप्रतिहत-प्रत्याख्यात पापकर्मा हूँ, अनिदान हूँ, दृष्टिसम्पन्न हूँ और मायामृषाविवर्जित हूँ।" 'श्रमण' शब्द ' श्रम्' धातु से बना है । इसका अर्थ है श्रम करना। आचार्य हरिभद्र दशैवकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन की तीसरी गाथा का मर्मोद्घाटन करते हुये श्रमण का अर्थ तपस्वी करते हैं । जो अपने ही

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