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[ आवश्यकसूत्र
सव्वदुक्खाणमंतं करेंति श्रीमद् आचाराङ्गसूत्र में बतलाया है - हे गौतम! मोक्ष के सुख का स्वरूप बतलाने के लिये कोई शब्द नहीं है। जैसे गूंगा आदमी गुड़ के स्वाद को जानता है, लेकिन उसका वर्णन नहीं कर सकता; इसी प्रकार जो मुक्तात्मा जीव, जिन्हें निरंजन पद प्राप्त हुआ है, वे मोक्ष सुख का अनुभव तो करते हैं, मगर उसे प्रकट करने के लिये उनके पास भी कोई शब्द नहीं है। निरंजन पद की प्राप्ति के बाद सभी दुःखों का अन्त हो जाता है ।
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बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा जिसकी सेवा में खड़े रहते हैं और हाथ जोड़े आज्ञा की प्रतीक्षा करते रहते हैं, उस छह खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती का सुख उत्तम है या मोक्ष का सुख उत्तम है ? अगर चक्रवर्ती का सुख उत्तम होता तो स्वयं चक्रवर्ती भी अखण्ड षट्खण्ड के महान् साम्राज्य को ठोकर मारकर क्यों भिक्षु जीवन स्वीकार करते ? चक्रवर्ती स्वयं अपने सुख को मोक्ष सुख की तुलना में तुच्छ, अति तुच्छ समझता है अर्थात् धर्माराधक साधक मोक्ष प्राप्त कर शारीरिक एवं मानसिक सब प्रकार के दुःखों का अन्त कर देता है। आचार्य जिनदास कहते हैं- "सव्वेसिं सारीर - माणसाणं दुक्खाणं अन्तकरा भवन्ति, वोच्छिण्णसव्वदुक्खा भवन्ति।" अर्थात् सिद्ध भगवान् समस्त शारीरिक और मानसिक दुःखों का अन्त करने वाले हैं, समस्त क्लेशों से मुक्त हो जाते हैं ।
सद्दहामि – मैं श्रद्धा करता हूँ। श्रद्धा जीवन निर्माण का मूल है। श्रद्धा के बिना कोई भी मनुष्य इस संसार सागर से पार हो जाये, यह सम्भव नहीं । व्यक्ति कितना भी विद्वान् हो, ज्ञानवान् हो, पंडित हो, दार्शनिक हो किन्तु अगर उसमें सम्यक्त्व नहीं है, उसकी आत्मा के प्रति श्रद्धा नहीं है तो विविध भाषाओं का ज्ञान और अनेक प्रकार की कलाओं का अभ्यास भी उसे संसार सागर से पार नहीं कर सकता । अतः श्रद्धा ही जीवन के लिये अमृत है। किसी भी साध्य की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है, किन्तु श्रद्धा अथवा विश्वास दुर्लभ है
"सद्दा परम दुल्लहा ।"
उत्तरा. सू. अ. ३ श्रद्धा के बिना मनुष्य अपने आपको भी नहीं पहचान सकता। श्रद्धा के बिना ज्ञान भी पंगु के सदृश हो जाता है। मेधावी तथा महान् वही होता है जिसकी रग-रग में श्रद्धा बसी हुई हो। ध्येय के प्रति एकनिष्ठ रहकर साधना करने से सफलता मिलती है। ध्येयसिद्धि में एकनिष्ठता ही वह भूमिका है कि जिस पर सफलता का अंकुर उत्पन्न होता है, पनपता है, बढ़ता है और फलप्रद होकर कृतकृत्य बना देता है। जिस व्यक्ति को अपने ध्येय में एकनिष्ठा नहीं, दृढ़ आस्था नहीं, अटूट विश्वास नहीं, उस दुलमुल साधक का कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। चाहे विद्याभ्यास हो, कला साधना हो, व्यापार हो, उद्योग हो अथवा धार्मिक क्रिया हो, सभी में एकनिष्ठ बनकर श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक पुरुषार्थ करने से ही सफलता प्राप्त हो सकती है। श्रद्धा के दो रूप होते हैं - प्रथम सम्यक् श्रद्धा एवं दूसरी अंध श्रद्धा । सम्यक् श्रद्धा विवेकपूर्ण होती है तथा अंध श्रद्धा अविवेकमय होती है। दोनों का उदगम स्थान मानव का हृदय है । जैसे गौ के स्तनों से विवेकी मानव
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