Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 160
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ] [८९ दूध प्राप्त कर लेता है और जोंक नामक जीव रक्त प्राप्त करता है । स्थान तो एक ही है । एक ही खान से हीरा और कोयला, एक ही पौधे से फूल और शूल प्राप्त होते हैं । किसे क्या ग्रहण करना है, यह सब अपनी दृष्टि पर निर्भर करता है। सम्यक् श्रद्धा दो प्रकार की है – सुगुरु, सुदेव एवं सुधर्म पर श्रद्धा होना व्यवहार-समकित (श्रद्धा) है तथा जो साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र - इन आत्मिक गुणों में निष्ठावान होता है, जिसे आत्मा का असली स्वरूप अवगत हो गया है और आत्मा के अनन्त सामर्थ्य पर विश्वास है, वह साधक निश्चय सम्यक्त्व का अधिकारी कहलाता है। श्रद्धा मुक्ति-महल में प्रवेश करने का प्रथम सोपान है। __ वास्तव में साधना का धरातल सम्यग्दर्शन ही है। इस के अभाव में किसी भी क्रिया के साथ धर्म शब्द नहीं जुड़ सकता। साधक प्रस्तुत पाठ में प्रतिज्ञा करता है कि वीतराग के बताये धर्म पर मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ अर्थात् धर्म में विश्वास करता हूँ, प्रीति करता हूँ एवं रुचि करता हूँ आदि। फासेमि-पालेमि-अणुपालेमि - जैनदर्शन केवल श्रद्धा एवं प्रतीति को ही साध्य की सिद्धि में हेतुभूत नहीं मानता है। प्रथम सोपान पर चढ़ कर वहीं जमे रहने से मुक्ति-महल में प्रवेश नहीं किया जा सकता। आगमकारों ने साधक को संकेत दिया है कि आत्म-सिद्धि के लिये सम्यक् श्रद्धा के साथ आगे बढ़ना होगा, ऊपर चढ़ना होगा और यह प्रतिज्ञा भी करनी होगी कि मैं धर्म का स्पर्श करता हूँ, जीवनपर्यंत प्रत्येक स्थिति में उसका पालन करता हूँ अर्थात् अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी स्वीकृत धर्माचार की रक्षा करता हूँ। पूर्व आप्तपुरुषों द्वारा आचरित धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करता हूँ। इस प्रतिज्ञा की मुमुक्षु साधक बार-बार पुनरावृत्ति करता रहता है। तभी वह अपने ध्येय में सफल हो सकता है। जैसे दर्जी खण्ड पट को अखण्ड रूप देने के लिये सुई के साथ धागा भी लेता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व (श्रद्धा) के साथ आचरण की भी अनिवार्यता है। __ अब्भुट्ठिओमि – प्रस्तुत पाठ में साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं धर्म की श्रद्धा, प्रीति, प्रतीति, स्पर्शना, पालना तथा अनुपालना करता हुआ धर्म की आराधना में सम्यक् प्रकारेण अभ्युत्थित होता हूँ अर्थात् तैयार होता हूँ, धर्माराधना के क्षेत्र में दृढ़ता के साथ खड़ा होता है। ज्ञ-परिज्ञा एवं प्रत्याख्यान-परिज्ञा - आचाराङ्ग आदि आगम साहित्य में दो प्रकार की परिज्ञाओं का उल्लेख आता है - एक ज्ञ-परिज्ञा, दूसरी प्रत्याख्यान-परिज्ञा। ज्ञ-परिज्ञा का अर्थ है हेय-उपादेय-ज्ञेय पदार्थ को स्वरूपतः जानना । प्रत्याख्यान-परिज्ञा का अर्थ है हेय का प्रत्याख्यान करना, छोड़ना। प्रत्याख्यान के भी दो प्रकार हैं - १. सुप्रत्याख्यान एवं २. दुष्प्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान का स्वरूप तथा जिसका प्रत्याख्यान किया जाता है उन पदार्थों का स्वरूप जान कर

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