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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
[८७ मोक्षप्राप्ति के लिये जिज्ञासु साधकों को ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अंतराय इन घातिक कर्मों को सर्वप्रथम नष्ट करने के लिये ज्ञानपूर्वक शभक्रिया करनी चाहिये, क्योंकि आत्मा शभ से ही शुद्ध की ओर अग्रसर होती है और एक समय ऐसा भी आता है कि कष्टसाध्य साधना के द्वारा आत्मा में बोध की किरण प्रस्फुटित हो जाती है। जो अघातिक कर्म वेदनीय, नाम, गोत्र एवं आयुकर्म जली हुई रस्सी के समान शेष रहते हैं, उनको पाँच लघु अक्षर उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने स्वल्प समय में नष्ट करके ही आत्मा सिद्धि को प्राप्त हो जाती है।
___ आशय यह है कि आत्मा के साथ अनादि काल से जो कर्मों का सम्बन्ध है, उनका भेदन करके ही आत्मा स्वदशा में स्थिर हो सकती है।
महाश्रमण महावीर का कर्मवाद एवं आत्मवाद सिद्धान्त अत्यन्त गहन है। प्रत्येक साधक को साधना-पथ पर गतिशील होने से पूर्व सभी तत्त्वों के सम्बन्ध में सम्यक् प्रकारेण जानकारी कर लेनी चाहिये, जिससे साधक निर्धान्त हो कर सहज ही साधनारत हो सके तथा सिद्ध, बुद्ध हो सके । अर्थात् कर्ममुक्त होकर शाश्वत एवं अक्षय मोक्ष-सुख को प्राप्त कर सके।
मोक्ष एक है - आत्मा का कर्म रूप पाश से अलग होना मोक्ष है । यह मोक्ष यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों से तत्-तत् कर्मों के छूटने से आठ प्रकार का है, फिर भी मोचनसामान्य की अपेक्षा यह एक है। इसमें भेद नहीं है । जीव की मुक्ति एक ही बार होती है । जो जीव एक बार मोक्ष प्राप्त कर लेता है वह फिर से संसार में जन्म के कारणों का अभाव होने से जन्म धारण नहीं करता, अतः जो स्थिति प्राप्त हो गई है वह सादि होकर भी अपर्यवसित है। उसकी पुनः प्राप्ति का अभाव है, अतः मोक्ष एक ही है।
परिनिव्वायंति - आत्मा स्वभाव से ऊर्ध्वगामी है। सम्यग्ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के द्वारा आत्मा शुद्ध, बुद्ध, विशुद्ध, अमल, विमल, उज्ज्वल एवं उन्नत बनती है । ज्ञान-दर्शन स्वरूप आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है। इससे भिन्न जितने भी राग-द्वेष, कर्म-शरीर आदि भाव हैं , वे सब संयोगजन्य बाह्य भाव हैं। 'अन्नो जीवो अन्नं सरीरं' अर्थात् आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है।
- सूत्रकृतांग सूत्र (२-१-९) शब्द, रूप, कामभोगादि जड़ पदार्थों से रहित आत्मा ही मोक्षगामी हो सकती है । जैनधर्म की यह दृढ़ मान्यता है कि हर एक आत्मा में महान् ज्योति जाज्वल्यमान है । आनन्द और अमर शांति का महासागर उसमें हिलोरें मार रहा है। प्रत्येक प्रसुप्त आत्मा का जब चैतन्य जाग उठता है तो वह आत्मा परमात्मा वीतराग एवं क्षुद्र से विराट और लघु से महान् बन जाती है। अन्त में परिनिर्वाण को प्राप्त हो जाती है।
निर्वाण की प्रशस्ति नहीं हो सकती। वह ऐसे अनिर्वचनीय, अनुपम, असाधारण परमानन्द का स्थान है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।