Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 156
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ] [८५ केवलियं – मूल में 'केवलियं' शब्द है, इसके संस्कृत रूपान्तर दो किये जा सकते हैं – केवल और कैवलिक। केवल का अर्थ अद्वितीय है । सम्यग्दर्शानादि तत्त्व अद्वितीय हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं। कैवलिक का अर्थ है - केवलज्ञानियों द्वारा प्ररूपित अर्थात् प्रतिपादित। पडिपुण्णं – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही जैनधर्म है। वह अपने आप में सब ओर से प्रतिपूर्ण है। नेयाउयं – 'नेयाउयं' का संस्कृत रूप नैयायिक होता है । आचार्य हरिभद्र नैयायिक का अर्थ करते हैं - जो नयनशील है, ले जाने वाला है, वह नैयायिक है । सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष में ले जाने वाले हैं, अतः वे नैयायिक कहलाते हैं । 'नयनशीलं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः।' श्री भावविजय जी न्याय का अर्थ 'मोक्ष' करते हैं। क्योंकि निश्चित आय - लाभ ही न्याय है और ऐसा न्याय एकमात्र मोक्ष ही है तथा साधक के लिये मोक्ष से बढ़ कर अन्य कोई लाभ नहीं है - "निश्चित आयो लाभो न्यायो मुक्तिरित्यर्थः, स प्रयोजनमस्येति नैयायिकः।" - उत्तराध्ययनवृत्ति, अध्य. ४, गा. ५ इसका एक अर्थ युक्ति-तर्क से युक्त-अबाधित भी हो सकता है। सल्लकत्तणं - आगम की भाषा में शल्य का अर्थ है - 'माया, निदान और मिथ्यात्व।' बाहर के शल्य कुछ काल के लिये ही पीड़ा देते हैं, परंतु ये अन्दर के शल्य तो बड़े ही भयंकर होते हैं । अनादिकाल से अनंत आत्माएँ इन शल्यों के कारण पीड़ित हो रही हैं । स्वर्ग में पहुँच कर भी इन से मुक्ति नहीं मिलती। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है – 'निःशल्यो व्रती'। व्रती के लिये सर्वप्रथम निःशल्य अर्थात् शल्य-रहित होना परम आवश्यक है। निजाणमग्गं - आचार्य हरिभद्र ने निर्याण का अर्थ मोक्ष पद किया है। जहां जाया जाता है वह यान होता है । निरुपम ज्ञान निर्याण कहलाता है । मोक्ष ही ऐसा पद है जो सर्वश्रेष्ठ यान-स्थान है । अत: वह जैन आगम साहित्य में निर्याण पदवाच्य भी है। अविसन्धि - अविसन्धि अर्थात् सन्धि से रहित । सन्धि बीच के अन्तर को कहते हैं । भाव यह है कि जिनशासन अनादिकाल से निरंतर अव्यवच्छिन्न चला आ रहा है । भरतादि क्षेत्र में किसी काल विशेष में नहीं भी होता है, परन्तु महाविदेह क्षेत्र में तो सदा काल अव्यवच्छिन्न बना रहता है । काल की सीमाएँ जैनधर्म की प्रगति में बाधक नहीं बन सकतीं। जिनधर्म निजधर्म अर्थात् आत्मा का धर्म है । अत: वह तीन काल और तीन लोक में कहीं न कहीं सदा सर्वदा मिलेगा ही। सव्व-दुःखपहीणमग्गं - धर्म का अंतिम विशेषण सर्वदुःखप्रहीणमार्ग है। संसार का प्रत्येक प्राणी दुःख से व्याकुल है, क्लेश से संतप्त है । वह अपने लिये सुख चाहता है, आनन्द चाहता है, परन्तु संसार

Loading...

Page Navigation
1 ... 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204