________________
८४]
[आवश्यकसूत्र
संयमी साधु।
निर्ग्रन्थों अरिहन्तों का प्रवचन, नैर्ग्रन्थ्यप्रावचन है।'
मूल में जो निग्गंथ शब्द है, वह निर्ग्रन्थ का वाचक न हो कर 'नैर्ग्रन्थ्य' का वाचक है । 'पावयणं' शब्द के दो संस्कृत रूपान्तर हैं - प्रवचन और प्रावचन । आचार्य जिनदास प्रवचन कहते हैं और हरिभद्र प्रावचन । शब्द भेद होते हुए भी अर्थ दोनों आचार्य एक ही कहते हैं । जिसमें जीवादि पदार्थों का तथा ज्ञानादि रत्नत्रय की साधना का यथार्थ रूप से निरूपण किया गया है, वह सामायिक से ले कर बिन्दुसार के पूर्व तक का आगम-साहित्य निर्ग्रन्थ प्रवचन या नैर्ग्रन्थ्य प्रावचन में गर्भित हो जाता है।
'प्रकर्षेण अभिविधिना उच्यन्ते जीवादयो यस्मिन तत्प्रावचनम्।' - आचार्य हरिभद्र ।
श्री ऋषभदेव स्वामी से ले कर श्री महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीसों तीर्थंकर भगवन्तों को मेरा नमस्कार हो। इस प्रकार नमस्कार करके तीर्थंकर प्रणीत प्रवचन की स्तुति करते हैं – यही निर्ग्रन्थ अर्थात् रजत आदि द्रव्यरूप और मिथ्यात्व आदि भावरूप ग्रन्थ से रहित – मुनि संबंधी सामायिक आदि प्रत्याख्यान पर्यन्त द्वादशांग गणिपिटक स्वरूप तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट प्रवचन सत्य है।
सच्चं – सत्य आत्मा का स्वभाव, अनुभूति का विषय और आचरण का आदर्श है । जैसे मिश्री की मधुरता का अनुभव, आस्वादन उसे मुंह में रखने से ही हो सकता है, उसी प्रकार सत्य का महत्त्व उसे आचरण में उतारने से ही मालूम होता है। सत्य का उपासक जीवन के हर क्षेत्र में हर समय सत्य को साथ रखता है । सत्य एक सार्वभौम सिद्धान्त है । सत्य को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता है।
सत्य से नीति सुशोभित होती है । जीवन और व्यवहार में सत्य की झलक आने पर मनुष्य का जीवन अपने आप धर्ममय हो जाता है। धर्म और नीतिग्रन्थों में सर्वत्र सत्य की महिमा का मुक्तकंठ से बखान किया गया है। सत्य सर्वोत्तम है, सर्वोत्कृष्ट है । सत्य के बिना धर्म की कल्पना नहीं की जा सकती है।
___ 'नाऽसौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति' अर्थात् वह धर्म, धर्म नहीं है जो सत्य से दूर है। सत्य साधना का सार, मनुष्य की तत्त्व-चिन्तना का तार और मोक्ष मंजिल का द्वार है । संसार का सम्पूर्ण सार तत्त्व इसमें निहित है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में सत्य को भगवान् का रूप कहा गया है।
जीवन का आधार है, सत्य सुखों की खान। प्रश्रव्याकरण देखिये, सत्य स्वयं भगवान् ॥
१. 'निर्ग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थ्यं प्रावचनमिति।'
- आचार्य हरिभद्र २. 'पावयणं सामाइयादि बिन्दुसारपज्जवसाणं जत्थ नाण-दसण-चरित्तसाहणवावारा अणेगधा वणिज्जति।'
- आचार्य जिनभद्र, आवश्यकचूर्णि