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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
प्रकाशस्तंभ हैं ।
भगवान् ऋषभदेव
वर्तमान कालचक्र में जो चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, उनमें भगवान् ऋषभदेव सर्वप्रथम हैं। आपके द्वारा ही मानव सभ्यता का आविर्भाव हुआ है । आपसे पहले मानव जंगलों में रहता, वन - फल खाता एवं सामाजिक जीवन से शून्य घूमा करता था । न उसे धर्म का पता था और न कर्म का ही । आत्मा का स्वरूपदर्शन सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव ने ही कराया।
भगवान् ऋषभदेव इस अवसर्पिणी काल में जैनधर्म के आदि प्रवर्तक हैं । जो लोग जैनधर्म को सर्वथा आधुनिक माने बैठें हैं, उन्हें इस ओर लक्ष्य देना चाहिये । भगवान् ऋषभदेव के गुणगान वेदों और पुराणों तक में गाये गये हैं। वे मानव संस्कृति के आदि उद्धारक थे, अतः वे मानव मात्र के पूज्य रहे हैं । प्राचीन वैदिक ऋषि उनके महान् उपकारों को नहीं भूले थे, उन्होंने खुले हृदय से भगवान् ऋषभदेव का स्तुति गान किया है
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अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्वं, बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्के ।
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- ऋग् मं. १ सू. १९० मं. १
अर्थात् मिष्टभाषी, ज्ञानी, स्तुतियोग्य ऋषभ को पूजा-साधक मंत्रों द्वारा वर्धित करो । भगवान् महावीर इस युग के प्रारंभ में भगवान् ऋषभदेव के द्वारा संस्थापित जैन धर्म की गरिमा को मध्यवर्ती बाइस तीर्थंकरों ने तथा चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने संवर्द्धना प्रदान की। किन्तु उस समय उन्हें सामाजिक एवं धार्मिक दोनों ही क्षेत्रों में अनेकानेक विकट समस्याओं से जूझना पड़ा था। आज से छब्बीस सौ वर्ष से कुछ अधिक वर्ष पूर्व यद्यपि धर्म का द्वीप प्रज्वलित था, पर देश की दशा अत्यंत शोचनीय थी। चारों ओर हिंसा का ताण्डवनृत्य हो रहा था तथा शोषण एवं अनाचार की अति से मानवता कराह रही थी। धर्म के नाम पर पशुओं के रक्त की नदियां बहती थीं, शूद्रों पर तथा नारी जाति पर भी भयानक अत्याचार होते थे। उस विकट बेला में जगदुद्धारक वीर प्रभु ने जन्म लिया और आत्मशक्ति से अहिंसा धर्म की दुन्दुभि
यी थी। भगवान् महावीर का ऋण भारतवर्ष पर अनंत है, असीम है, हम किसी भी प्रकार से उनका ऋण अदा नहीं कर सकते। वे पूर्ण निष्काम थे, बदले में चाहते भी कुछ नहीं थे। लेकिन उनके अनुयायी अथवा सेवक होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम उनके बताये हुए सन्मार्ग पर चलें और श्रद्धा और भक्ति के साथ मस्तक झुका कर उनके श्रीचरणों में वन्दन करें ।
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निग्गंथं पावयणं 'पावयणं' विशेष्य है और 'निग्गंथं' विशेषण है। जैन साहित्य से 'निग्गंथ' शब्द प्रसिद्ध है । निग्गंथ का संस्कृत रूप 'निर्ग्रन्थ' होता । निर्ग्रन्थ का अर्थ है - धन-धन्य आदि बाह्य ग्रन्थ और मिथ्यात्व, अविरति तथा क्रोध, मान, माया आदि आभ्यन्तर ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह से रहित, पूर्ण त्यागी एवं