________________
[८१
चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
अभं परियाणामि, बंभ उवसंपज्जामि। अकप्पं परियाणामि, कप्पं उवसंपन्जामि। अन्नाणं परियाणामि, नाणं उवसंपजामि। अकिरियं परियाणामि, किरियं उवसंपज्जामि। मिच्छत्तं परियाणामि, सम्मतं उवसंपजामि। अबोहिं परियाणामि, बोहिं उवसंपजामि। अमग्गं परियाणामि, मग्गं उवसंपज्जामि। जं संभरामि, जं च न संभरामि। जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि।
तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिक्कमामि। समणोऽहं संजय-विरय-पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे , अनियाणो दिट्ठिसंपन्नो-माया-मोस-विवजिओ।
अड्ढाइजेसु दीव-समुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु, जावंति, केइ साहू रयहरण-गुच्छपडिग्गहधारा, पंचमहव्वय-धारा अट्ठारस्स-सहस्स-सीलंगधारा, अक्खयाकारचरित्ता, ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएणं वंदामि॥
भावार्थ - भगवान् ऋषभदेव से ले कर भगवान महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर देवों को मैं नमस्कार करता हूँ।
___ यह तीर्थंकरोपदिष्ट निर्ग्रन्थ-प्रवचन ही सत्य है, अनुत्तर-सर्वोत्तम है , केवलिक-केवलज्ञानियों द्वारा प्ररूपित है, (मोक्षप्रापक गुणों से) परिपूर्ण है, न्याय, युक्ति, तर्क से अबाधित है, पूर्णरूप से शुद्ध अर्थात् सर्वथा निष्कलंक है, माया आदि शल्यों को नष्ट करने वाला है, सिद्धिमार्ग-सिद्धि की प्राप्ति का उपाय है, कर्म-बन्धन से मुक्ति का साधन है, संसार से छुड़ा कर मोक्ष का मार्ग है , पूर्ण शान्ति रूप निर्वाण का मार्ग है, मिथ्यात्वरहित है, विच्छेदरहित अर्थात् सनातन नित्य है तथा पूर्वापरविरोध से रहित है, सब दुःखों का पूर्णतया क्षय करने का मार्ग है।
इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित रहने वाले अर्थात् तदनुसार आचरण करने वाले भव्य जीव सिद्ध होते हैं , बुद्ध-सर्वज्ञ होते हैं , मुक्त होते हैं , पूर्ण आत्मशान्ति को प्राप्त करते हैं , समस्त दुःखों का सदाकाल के लिये अन्त करते हैं।
मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन रूप धर्म पर श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूँ, स्पर्शना करता हूँ, पालना अर्थात् रक्षा करता हूँ। विशेष रूप से निरंतर पालन करता हूँ।
मैं प्रस्तुत जिन-धर्म की श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ, स्पर्शना आचरण