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[ आवश्यकसूत्र
करता हुआ, पालन करता हुआ, विशेष रूप से निरंतर पालन करता हुआ -
उस केवलिप्ररूपित धर्म की आराधना के लिये उद्यत होता हूँ और विराधना से विरत-निवृत्त होता हूँ। असंयम को ज्ञपरिज्ञा से जानता और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्यागता हूँ तथा संयम को स्वीकार करता हूँ। अब्रह्मचर्य को जानता और त्यागता हूँ और ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ। अकल्प्य (अकृत्य) को जानता और त्यागता हूँ, कृत्य को स्वीकार करता हूँ। अज्ञान को जानता और त्यागता हूँ, ज्ञान को स्वीकार करता हूँ। अक्रिया-नास्तिकवाद को जानता तथा त्यागता हूँ, क्रिया-सम्यग्वाद को स्वीकार करता हूँ। मिथ्यात्व को जानता और त्यागता हूँ, सम्यक्त्व-सदाग्रह को स्वीकार करता हूँ।
हिंसा आदि अमार्ग को (ज्ञपरिज्ञा से) जानता और (प्रत्याख्यानपरिज्ञा से) त्यागता हूँ। अहिंसा आदि मार्ग को स्वीकार करता हूँ।
जिन दोषों को स्मरण कर रहा हूँ, जो याद हैं और जो स्मृतिगत नहीं हैं, जिनका प्रतिक्रमण कर चुका हूँ और जिनका प्रतिक्रमण नहीं कर पाया हूँ, उन दिवस संबंधी अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ।
मैं श्रमण हूँ, संयमी हूँ, विरत-सावध व्यापारों से एवं संसार से निवृत्त हूँ, पापकर्मों को प्रतिहत करने वाला हूँ, निदान शल्य से रहित अर्थात् आसक्ति से रहित हूँ, दृष्टिसम्पन्न-सम्यग्दर्शन से युक्त हूँ, माया सहित मृषावाद-असत्य का परिहार करने वाला हूँ।
__ढाई द्वीप और दो समुद्र परिमित मानव क्षेत्र में अर्थात् पंद्रह कर्मभूमियों में जो भी रजोहरण, गुच्छक एवं पात्र को धारण करने वाले तथा पाँच महाव्रतों, अठारह हजार शीलांगों-सदाचार के अंगों को धारण करने वाले एवं निरतिचार आचार के पालन त्यागी साधु मुनिराज हैं, उन सबको शिर नमा कर, मन से, मस्तक से वन्दना करता हूँ।
विवेचन - जैनधर्म मूलतः पापों से बचने का आदर्श प्रस्तुत करता है। अतः वह कृत कर्मों के लिये पश्चाताप कर लेना ही पर्याप्त नहीं समझता, प्रत्युत भविष्य में पुनः पाप न होने पायें, इस बात की भी सावधानी रखने का निर्देश करता है।
प्रतिज्ञा करने से पहले संयम-पथ के महान यात्री आदिनाथ श्री ऋषभ से ले कर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर देवों को नमस्कार किया है । युद्धवीर युद्धवीरों का तो अर्थवीर अर्थवीरों का स्मरण करते हैं। यह धर्मयुद्ध है, अत: यहां धर्मवीरों का ही स्मरण किया गया है। यह अटल नियम रहा है कि जैसी साधना करनी हो उसी साधना के उपासकों एवं उसमें सिद्धि प्राप्त करने वालों का स्मरण किया जाता है। अतः जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकरों की स्मृति हमारी आत्म-शुद्धि को स्थिर करने वाली है । तीर्थंकर हमारे लिये अंधकार में