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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
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१८. एक वर्ष में दश उदक-लेप (सचित्त जल का लेप) लगाना। १९. वर्ष में दस बार माया-स्थानों का सेवन करना।
२०. जान-बूझकर सचित्त जल वाले हाथ से तथा सचित्त जल-सहित कुड़छी आदि से दिया जाने वाला आहार ग्रहण करना।
२१. जान-बूझकर जीवों वाले स्थान पर, बीज, हरित, कीड़ीनगरा, लीलन-फूलन, कीचड़ और मकड़ी के जालों वाले स्थान पर बैठना, सोना, कायोत्सर्ग करना। बाईस परिषह -
क्षुधा आदि किसी भी कारण से कष्ट उपस्थित होने पर संयम में स्थिर रहने के लिये तथा कर्मों की निर्जरा के लिये जो शारीरिक तथा मानसिक कष्ट साधु को सहन करने चाहिये, वे परिषह हैं, क्योंकि साधुजीवन सुखशीलता का जीवन नहीं है। वह आरामतलबी से विमुख होकर आत्मा की पूर्ण निर्मलता के लिये जूझने का जीवन है। श्री समवायांग एवं उत्तराध्ययन में २२ परिषहों का वर्णन है। इन पर विजय पानासमभाव से सहना चाहिये। विवरण इस प्रकार है -
१. क्षुधा – भूख का कष्ट सहन करना। २. पिपासा - निर्दोष पानी नहीं मिलने पर प्यास का कष्ट सहन करना। ३. शीत – अल्प वस्त्रों के कारण भयंकर ठंड का कष्ट सहना। ४. उष्ण – गर्मी का कष्ट सहना। ५. दंशमशक – डांस-मच्छर-खटमल आदि जन्तुओं का कष्ट सहना। ६. अचेल – वस्त्रों के नहीं मिलने पर होने वाला कष्ट सहना। ७. अरति – कठिनाइयों से घबराकर संयम के प्रति होने वाली अरुचि का निवारण करना। ८. स्त्रीपरिषह – नारीजन्य प्रलोभन पर विजय पाना। यह अनुकूल परिषह है। ९. चर्यापरिषह – विहार-यात्रा में होने वाला गमनादि का कष्ट सहना। १०. निषद्या – स्वाध्याय-भूमि आदि में होने वाले उपद्रव को सहन करना। ११. शय्या - अनुकूल मकान नहीं मिलने पर होने वाले कष्ट को सहना। १२. आक्रोश - कोई गाली दे, धमकाये या अपमानित करे तो समभाव रखना। १३. वध – समभाव से लकड़ी आदि की मार सहना।