________________
चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
[ ७१
स्वरूप माना जाता है, अतः उसके तीन अध्ययन मिलकर आचारांगसूत्र के अट्ठाईस अध्ययन होते हैं
१. शस्त्रपरिज्ञा, २. लोकविजय, ३. शीतोष्णीय, ४. सम्यक्त्व, ५. लोकसार, ६. धूताध्ययन, ७. महापरिज्ञा, ८. विमोक्ष, ९. उपधानश्रुत, १०. पिण्डैषणा, ११. शय्या, १२. ईर्याध्ययन, १३. भाषा, १४. वस्त्रैषणा, १५. पात्रैषणा, १६. अवग्रहप्रतिमा, १७. सप्त स्थानादि-सप्तैकिकाध्ययन, १८. नैषधिकीसप्तैकिकाध्ययन, १९. उच्चारप्रस्रवणसतैकिकाध्ययन, २० शब्दसतै किकाध्ययन, २१. रूपसतै किकाध्ययन, २२. परक्रियासप्तैकिकाध्ययन, २३. अन्योन्यक्रियासतैकिकाध्ययन, २४. भावना, २५. विमुक्ति, २६. उद्घात, २७. अनुद्घात, २८. आरोपण ।
समवायांगसूत्र के अनुसार आचारप्रकल्प के अट्ठाईस भेद इस प्रकार हैं
१. एक मास का प्रायचित्त, २. एक मास पांच दिन का प्रायश्चित्त, ३. एक मास दस दिन का प्रायश्चित्त । इसी प्रकार पांच दिन बढ़ाते हुये पांच मास तक कहना चाहिये । ( इस प्रकार २५ हुए) २६. उपद्घात-अनुपद्धात, २७. आरोपण, २८. कृत्स्नाकृत्स्न । इन अट्ठाईस अध्ययनों की श्रद्धा, प्ररूपणा आदि में कोई अतिचार लगा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।
पापश्रुत के २९ भेद
-
जो आत्मा को दुर्गति में डालने का कारण हो, उसे 'पाप' कहते हैं, और जो गुरु मुख से सुना जाये उसे 'श्रुत' कहते हैं । इसी प्रकार पापरूप श्रुत को 'पापश्रुत' कहते हैं। वह मुख्यतः उनतीस प्रकार का है. १. उत्पात अपने आप होने वाली रुधिर आदि की वृष्टि का शुभाशुभ बताने वाला निमित्तशास्त्र । २. भौम - भूमिकम्प आदि का फल बताने वाला शास्त्र ।
३. स्वप्नशास्त्र
• स्वप्न का शुभाशुभ फल बताने वाला शास्त्र ।
४. अन्तरिक्षशास्त्र आकाश में होने वाले ग्रहयुद्ध आदि का वर्णन करने वाला शास्त्र ।
५.
. अंगशास्त्र
६. स्वरशास्त्र ७. व्यञ्जनशास्त्र ८. लक्षणशास्त्र
कहने वाला शास्त्र ।
-
-
-
-
शरीर के विभिन्न अंगों के फड़कने का फल कहने वाला शास्त्र ।
जीवों के चन्द्रस्वर, सूर्यस्वर आदि स्वर का फल प्रतिपादन करने वाला शास्त्र ।
तिल, मषा आदि के फल का वर्णन करने वाला शास्त्र ।
स्त्री और पुरुषों के लक्षणों (मान, उन्मान, प्रमाण आदि) का शुभाशुभ फल
-
-
-
ये आठों ही सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के भेद से चौबीस हो जाते हैं ।
२५. विकथानुयोग अर्थ और काम के उपायों को बताने वाला शास्त्र । जैसे वात्स्यायनकृत