Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 148
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ] [७७ ३०. संग का परित्याग करना। ३१. कृत दोषों का प्रायश्चित करना। ३२. मरणपर्यन्त ज्ञानादि की आराधना करना। विवेचन – इन बत्तीस योगसंग्रहों का सम्यक् आराधन नहीं होने से जो कोई अतिचार किया गया हो तो मैं उससे निवृत्त होता हूँ। मन, वचन एवं काय के व्यापार को योग कहते हैं । योग के दो भेद हैं - शुभ योग एवं अशुभ योग। शुभ योग में प्रवृत्ति और अशुभ योग से निवृत्ति ही संयम है। प्रस्तुत सूत्र में शुभ प्रवृत्ति रूप योग ही ग्राह्य है । उसी का संग्रह संयमी जीवन की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रख सकता है। "युज्यन्ते इति योगाः मनोवाक्कायव्यापाराः, ते चेह प्रशस्ता एव विवक्षिता।" - आचार्य अभयदेव समवायांग टीका तेतीस आशातना - जैनाचार्यों ने आशातना शब्द की निरुक्ति बड़ी सुन्दर की है । सम्यग्दर्शन आदि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को 'आय' कहते हैं और शातना का अर्थ है खण्डन । देव, गुरु शास्त्र आदि का अपमान करने से सम्यग्दर्शन आदि सद्गुणों की शातना-खण्डना होती है। 'आयः - सम्यग्दर्शनावद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना-खण्डनं निरुक्तादाशातना।' - आचार्य अभयदेव समवायांग टीका 'आसातणाणामं नाणादिआयस्स सातणा। यकारलोपं कृत्वा आशातना भवति।' - आचार्य जिनदास, आवश्यकचूर्णि गुरुदेव सम्बन्धी ३३ आशातनाओं का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। यहाँ अरिहन्तादि की तेतीस आशातनाओं का निरूपण मूल पाठ में ही किया गया है। उनका अर्थ इस प्रकार है - अरिहंताणं आसायणाए – सूत्रोक्त तेतीस आशातनाओं में पहली आशातना अरिहन्तों की है। अनन्तकाल से अन्धकार में भटकते हुये जीवों को सत्य का प्रकाश मूलत: अरिहन्त भगवान् ही दिखलाते हैं। वे ही धर्म का उपदेश करते हैं तथा सन्मार्ग का निरूपण करते हैं । अतः परमोपकारी अरिहन्तों की आशातना नहीं करनी चाहिये। ___ यदि कोई कहे कि भारतवर्ष में तो अरिहन्त हैं ही नहीं, फिर उनकी आशातना कैसे हो सकती है? समाधान है कि 'अरिहन्त की कोई सत्ता नहीं है। उन्होंने तो कठोर धर्म का उपदेश दिया है । वे वीतराग होते

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