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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
१६. राजा, नगरसेठ तथा राष्ट्रनेता आदि की हत्या करना
१७. समाज के आधारभूत विशिष्ट परोपकारी पुरुष की हत्या करना ।
१८. दीक्षित साधु को संयम से भ्रष्ट करना ।
१९. केवलज्ञानी की निन्दा करना ।
२०. मोक्षमार्ग का अपकार अथवा अवर्णवाद करना ।
२१. आचार्य अथवा उपाध्याय की निन्दा करना ।
२२. आचार्य अथवा उपाध्याय की सेवा न करना ।
२३. बहुश्रुत न होते हुये भी अपने आपको बहुश्रुत कहना, कहलाना ।
२४. तपस्वी न होते हुये भी अपने को तपस्वी कहना ।
२५. शक्ति होते हुये भी अपने आश्रित वृद्ध, रोगी आदि की सेवा न करना ।
२६. हिंसा तथा कामोत्पादक विकथाओं का बार-बार प्रयोग करना ।
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२७. जादू-टोना आदि करना ।
२८. कामभोग में अत्यधिक लिप्त रहना, आसक्त रहना ।
२९. देवताओं की निंदा करना ।
३०. देवदर्शन न होते हुये भी प्रतिष्ठा के मोह से देवदर्शन की बात कहना ।
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दशाश्रुतस्कन्ध विवेचन - संसार के प्राणिमात्र को मोह ने घेर रखा है। चारों ओर मोह का जाल बिछा हुआ है क्या परिवार, क्या सम्प्रदाय, क्या जाति एवं क्या अन्य इकाई, सर्वत्र मोह का अंधेरा व्याप्त है । कहीं धन का मोह है तो कहीं पुत्र का, कहीं स्त्री का मोह तो कहीं वस्त्राभूषणों का। मोहममत्व बाहर में दिखाई देने वाली चीज नहीं है कि जिसे हाथ में लेकर बताया जा सके। ये तो एक प्रकार भाव हैं। जब कर्मबन्ध होता है चाहे वह मोहनीय का हो, चाहे अन्य कर्मों का, तब आत्मा के साथ अनन्त - अनन्त कर्मवर्गणाओं का होता है। उनकी अनेक पर्यायें हैं, न्यूनाधिक अवस्थाएँ हैं । मोहबहुरुपिया है । वह अनेक रूपों में आता है । इन्द्रजाल भी उसके सामने तुच्छ । उसके सामने रावण की बहुरूपिणी या बहुसारिणी विद्या भी नगण्य है। मोह को पहचानना बड़ा कठिन है । महामोहनीय कर्म की स्थिति भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट ७० करोड़ाकरोड़ सागरोपम की है, जो सब कर्मों की स्थिति से अधिक है। यहाँ महामोहनीय कर्म के बन्ध के मुख्य तीस स्थान अर्थात् कारण प्ररूपित किये गये हैं ।
इन तीस महामोहनीय के कारणों में से किसी भी कारण से जो कोई अतिचार किया गया हो तो मैं