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[ आवश्यकसूत्र
१४. याचना – मांगने पर कोई तिरस्कार कर दे तो भी क्षुब्ध न होना। १५. अलाभ – याचना करने पर भी वस्तु न मिले तो खेद न करना। १६. रोग – रोग उत्पन्न होने पर धैर्यपूर्वक सहन करना। १७. तृणस्पर्श – कांटा आदि चुभने पर या तृण पर सोने से होने वाले कष्ट को सहना। १८. जल्ल – शारीरिक मल का परिषह सहन करना। १९. सत्कार – पूजा-प्रतिष्ठा प्राप्त होने पर अहंकार न करना, न प्राप्त होने पर खेद न करना। २०. प्रज्ञा – बुद्धि का गर्व नहीं करना। २१. अज्ञान - बुद्धिहीनता का दुःख समभाव से सहन करना।
२२. दर्शन – दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व को भ्रष्ट करने वाले मिथ्या मतों के मोहक वातावरण से प्रभावित न होना। सूत्रकृतांगसूत्र के २३ अध्ययन -
प्रथम श्रुतस्कन्ध के पूर्वोक्त सोलह अध्ययन एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययन - (१७) पुण्डरीक, (१८)क्रियास्थान, (१९) आहारपरिज्ञा, (२०) प्रत्याख्यानक्रिया, (२१) आचार श्रुत, (२२) आर्द्रकुमार, (२३) नालन्दीय, मिलकर तेईस अध्ययन होते हैं।
____ उक्त तेईस अध्ययनों के कथनानुसार संयमी जीवन न होना, अतिचार है। चौवीस देव -
असुरकुमार आदि दश भवनपति; भूत, यक्ष आदि आठ व्यन्तर; सूर्य, चन्द्र आदि पांच ज्योतिष्क और वैमानिक देव, इस प्रकार कुल चौवीस जाति के देव हैं । संसार में भोग-जीवन के ये सबसे बड़े प्रतिनिधि हैं। इनकी प्रशंसा करना भोगमय जीवन की प्रशंसा करना है और निन्दा करना द्वेषभाव है । अत: मुमुक्ष को तटस्थ भाव ही रखना चाहिये। यदि कभी तटस्थता का भंग किया हो तो अतिचार है।
उत्तराध्ययनसूत्र के सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य शान्तिसूरि यहाँ देव शब्द से चौवीस तीर्थंकर देवों का भी ग्रहण करते हैं । इस अर्थ के मानने पर अतिचार होगा- उनके प्रति आदर या श्रद्धा भाव न रखना, उनकी आज्ञानुसार न चलना आदि। पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ -
महाव्रतों का शुद्ध पालन करने के लिये शास्त्रों में प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएँ बतलाई गई हैं । भावनाओं का स्वरूप बहुत ही हृदयग्राही एवं जीवनस्पर्शी है । श्रमणधर्म का शुद्ध पालन करने के लिये