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कोटयाचार्य ने आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अपूर्ण स्वोपज्ञ भाष्य को पूर्ण किया और विशेषावश्यकभाष्य पर भी एक नवीन वृत्ति लिखी। पर लेखक ने उस वृत्ति में आचार्य हरिभद्र का कहीं पर भी उल्लेख नहीं किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि वे हरिभद्र के समकालीन या पूर्ववर्ती होंगे। कोट्याचार्य ने जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का श्रद्धास्निग्ध स्मरण किया है। मलधारी आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी विशेषवश्यकभाष्यवृत्ति में कोट्याचार्य का प्राचीन टीकाकार के रूप में उल्लेख किया है। प्रभावक चरित्रकार ने आचार्य शीलात को और कोटयाचार्य को एक माना है। परन्तु शीलाङ्क और कोटयाचार्य दोनों के समय एक नहीं हैं। कोटयाचार्य का समय विक्रम की आठवीं सदी है तो शीलाङ्क का समय विक्रम की नवीं दशमी सदी है। अत: वे दोनों पृथक्-पृथक् हैं । कोट्याचार्य का प्रस्तुत विशेषावश्यकभाष्य पर जो विवरण है वह न तो अतिसंक्षिप्त है और न ही अतिविस्तृत ही है। विवरण में जो कथाएं उटूंकित की गई हैं, वे प्राकृत भाषा में हैं। विवरण का ग्रन्थमान १३७०० श्लोक प्रमाण है।
___आचार्य मलयगिरि उत्कृष्ट प्रतिभा के धनी मूर्धन्य मनीषी थे। उन्होंने आगम ग्रन्थों पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण टीकाएं लिखी हैं। उन टीकाओं में उनका प्रकाण्ड पाण्डित्य स्पष्ट रूप से झलकता है। विषय की गहनता, भाषा की प्रांजलता, शैली का लालित्य एवं विश्लेषण की स्पष्टता उनकी विशेषताएँ हैं । वे आगमसाहित्य के गम्भीर ज्ञाता थे तो गणितशास्त्र, दर्शनशास्त्र और कर्मसिद्धान्त में भी निष्णात थे। उन्होंने अनेक आगमों पर टीकाएं लिखीं। आवश्यकसूत्र पर भी उन्होंने आवश्यकविवरण नामक वृत्ति लिखी है। यह विवरण मूल सूत्र पर न होकर आवश्यकनियुक्ति पर है। यह विवरण अपूर्ण ही प्राप्त हुआ है। इसमें मंगल आदि पर विस्तार से विवेचन और उसकी उपयोगिता पर चिन्तन किया गया है। नियुक्ति की गाथाओं पर सरल और सुबोध शैली में विवेचन किया है। विवेचन की विशिष्टता यह है - आचार्य ने विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओं पर स्वतंत्र विवेचन न कर उनका सार अपनी वृत्ति में उटुंकित कर दिया है। वृत्ति में जितनी भी गाथाएं आई हैं, वे वृत्ति के वक्तव्य को पुष्ट करती हैं । वृत्ति में विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति का भी उल्लेख हुआ है साथ ही प्रज्ञाकरगुप्त, आवश्यक चूर्णिकार,
आवश्यक मूल टीकाकार, आवश्यक मूल भाष्यकार, लघीयस्त्रयालंकार,अकलङ्क-न्यायावतार वृत्तिकार प्रभृति का भी उल्लेख हुआ है। यत्र-तत्र विषय को स्पष्ट करने के लिये कथाएं भी उद्धृत की गई हैं। कथाओं की भाषा प्राकृत है। वर्तमान में जो विवरण उपलब्ध है उसमें चतुर्विंशतिस्तव नामक द्वितीय अध्ययन के 'थूभं रयणविचित्तं कुंथु सुमिणम्मि तेण कुंथुजिणो' के विवेचन तक प्राप्त होता है। उसके पश्चात् भगवान् अरनाथ के उल्लेख का विवरण नहीं मिलता है। यह जो विवरण है वह चतुर्विंशतिस्तव नामक द्वितीय अध्ययन तक है और वह भी अपूर्ण है। जो विवरण उपलब्ध है उसका ग्रन्थमान १८००० श्लोक प्रमाण है।
मलधारी आचार्य हेमचन्द्र महान् प्रतिभासम्पन्न और आगमों के ज्ञाता थे। वे प्रवचनपटु और वाग्मी थे। उन्होंने नेक ग्रन्थों का निर्माण किया। आवश्यकवृत्ति प्रदेशव्याख्या आचार्य हरिभद्र की वृत्ति पर लिखी गई है, इसलिये उसका अपरनाम हारिभद्रीयावश्यक वृत्तिटिप्पणक है। मलधारी आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य ने प्रदेशव्याख्याटिप्पण भी लिखा है।
आचार्य मलधारी हेमचन्द्र की विशेषावश्यकभाष्य पर दूसरी वृत्ति शिष्यहिता है। यह वृहत्तम कृति है। आचार्य ने भाष्य में जितने भी विषय आये हैं, उन सभी विषयों का बहुत ही सरल और सुगम दृष्टि से समझाने का प्रयास किया है। दार्शनिक चर्चाओं का प्राधान्य होने पर भी शैली में काठिन्य नहीं है। यह इसकी महान विशेषता है। संस्कृत कथानकों से विषय में सरसता व सरलता आ गई है। यदि यह कह दिया जाये कि प्रस्तुत टीका के कारण विशेषावश्यकभाष्य के पठन-पाठन में सरलता हो गई तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
अन्य अनेक मनीषियों ने भी आवश्यकसूत्र पर वृत्तियां लिखी हैं। संक्षेप में उनका विवरण इस प्रकार है -
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