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प्रथम अध्ययन : सामायिक ]
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'दु'- सावद्यकारी आत्मा की निन्दा करता हूँ, 'क'- किये हुये सावध कर्म को, 'डं'- उपशम द्वारा त्याग करता हूँ। अर्थात् द्रव्य एवं भाव से नम्र तथा चारित्रमर्यादा में स्थित होकर मैं सावद्य क्रियाकारी आत्मा की निन्दा करता हूँ और किये हुये दुष्कृत (पाप) को उपशम भाव से हटाता हूँ। किन्तु यह एक क्लिष्ट कल्पना है। ऐर्यापथिकसूत्र
इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे पाणक्कमणे बीय-क्कमणे, हरिय-क्कमणे, ओसा-उत्तिंग-पणग-दग-मट्टी-मक्कडा-संताणा-संकमणे,
जे मे जीवा विराहिया-एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिदिया, पंचिंदिया, अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया,
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
भावार्थ - मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। मार्ग में चलते हुये अथवा संयमधर्म पालन करते हुये लापरवाही अथवा असावधानी के कारण किसी भी जीव की किसी प्रकार की विराधना अर्थात् हिंसा हुई हो तो मैं उस पाप से निवृत्त होना चाहता हूँ।
- स्वाध्याय आदि के लिये उपाश्रय से बाहर जाने में और फिर लौटकर उपाश्रय आने में अथवा मार्ग में कहीं गमनागमन करते हुये प्राणियों को पैरों के नीचे या किसी अन्य प्रकार से कुचला हो, सचित्त जौ, गेहूँ या किसी भी तरह के बीजों को कुचला हो, घास, अंकुर आदि हरित वनस्पति को मसला हो, दबाया हो तो मेरा वह सब अतिचारजन्य पाप मिथ्या हो-निष्फल हो तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय तक किसी भी जीव की विराधना-हिंसा की हो, सामने आते हुये को रोका हो, धूल आदि से ढंका हो, जमीन पर या आपस में मसला हो, एकत्रित करके ऊपर नीचे ढेर किया हो, असावधानी से क्लेशजनक रीति से छुआ हो, परितापित अर्थात् दुःखित किया हो, थकाया हो, त्रस्त-हैरान किया हो, एक जगह से दूसरी जगह बदला हो, जीवन से रहित किया हो, तो मेरा वह सब पाप मिथ्या हो-निष्फल हो।
विवेचन – मनुष्य भ्रमणशील है । वह सदा-सर्वदा घूमता रहता है । कभी शरीर से घूमता है, कभी वाणी से दुनिया की सैर करता है, तो कभी मन से आकाश-पाताल को नापता है। उसका एक योग निरंतर गतिशील रहता है। उसकी यात्रा जिन्दगी की पहली सांस से प्रारम्भ होती है और अन्तिम सांस तक चलती रहती है। साधु तो विशेष रूप से घुम्मकड़ है । तात्पर्य यह है कि जीवन में गमनागमन करना अनिवार्य क्रिया