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[ आवश्यकसूत्र
बन्धनसूत्र
प्रस्तुत सूत्र में राग-द्वेष को बन्धन कहा है। राग-द्वेष के द्वारा अष्टविध कर्मों का बन्ध होता है। राग-द्वेष की प्रवृत्ति चारित्रमोह के उदय से होती है तथा चारित्रमोह संयम-जीवन का दूषक एवं घातक है। जब तक राग-द्वेष की मलिनता है तब-तक चारित्र की शुद्धता किसी भी तरह नहीं हो सकती।
राग-द्वेष दो बीज हैं, कर्मबन्ध की व्याध। ज्ञानातम वैराग्य से, पावै मुक्ति समाध॥
- बृहदालोयणा(रणजीत सिंह कृत) जिसके द्वारा आत्मा कर्म से रंगा जाता है, वह मोह की परिणति राग है तथा किसी के प्रति शत्रुता, घृणा, क्रोध आदि दुर्भावना द्वेष है । चार कषायों में से क्रोध और मान को द्वेष में तथा माया और लोभ को राग में परिगणित किया गया है। दण्डसूत्र -
___ आत्मा की जिस अशुभ प्रवृत्ति से आत्मा दण्डित होता है अर्थात् दुःख का पात्र बनता है, वह दण्ड कहलाता है । दण्ड तीन प्रकार के होते हैं - १. मनोदण्ड, २. वचनदण्ड और ३. कायदण्ड।
१. मनोदण्ड – १. विषाद करना, २. क्रूरतापूर्ण विचार करना, ३. व्यर्थ कल्पनायें करना, ४. मन का इधर-उधर बिना प्रयोजन भटकना, ५. अपवित्र विचार रखना, ६. किसी के प्रति घृणा, द्वेष आदि करना मनोदण्ड है। इनकी अशुभ प्रवृत्तियों से आत्मा चौबीस दण्डकों में दण्डित होता है।
२. वचनदण्ड – १. असत्य बोलना, २. अन्य की निन्दा, चुगली करना, ३. कड़वा बोलना, ४. अपनी प्रशंसा करना, ५. निरर्थक या निष्प्रयोजन बोलना, ६. सिद्धांत के विरुद्ध प्ररूपणा करना आदि।
३. कायदण्ड – १. किसी को पीड़ा पहुँचाना, २. अनाचार का सेवन करना, ३. किसी की वस्तु चुराना, ४. अभिमान से अकड़ना, ५. व्यर्थ इधर-उधर डोलना, ६. असावधानी से चलना आदि।
इन्हीं तीनों के माध्यम से आत्मा अशुभ प्रवृत्तियाँ करके दण्डित होता है - चौबीस दण्डकों में भटकता हुआ क्लेशों का भाजन बनता है, अतएव ये दण्ड कहलाते हैं। गुप्तिसूत्र -
गुप्ति – अशुभ योग से निवृत्त हो कर शुभ योग में प्रवृत्ति करना गुप्ति है । अथवा संसार के कारणों से आत्मा की सम्यक् प्रकार से रक्षा करना, तीनों योगों की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना तथा आगन्तुक कर्मरूपी कचरे को रोकना गुप्ति है। गुप्ति तीन प्रकार की है – १. मनोगुप्ति, २. वचनगुप्ति, ३. कायगुप्ति ।
मनोगुप्ति – आर्त तथा रौद्र ध्यान विषयक मन से संरंभ, समारंभ तथा आरंभ संबंधी संकल्प