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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
[५७ नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियाँ -
- ब्रह्मचर्य शरीर की शक्ति है । जीवन का परमोत्तम धन है । मन का मर्दन है । आत्मा का उत्थान है। व्रतों में उत्तम है । साधना की बुनियाद और धर्माराधना का आधार है । सफलता का साधन और शांति का स्रोत है । क्षमा का सागर और विनय का आगार है। सूत्रकृतांग सूत्र के छठे अध्ययन में लिखा है - 'तवेसु वा उत्तम बंभचेरं' अर्थात् ब्रह्मचर्य तपों में श्रेष्ठ है। ब्रह्मचर्य का अर्थ -
जीवो बंभो जीवम्मि चेव चरिया, हविज जा जदिणो ? तं जाणं बंभचेरं, विमुक्क परदेहतित्तिस्स॥
- भगवती आराधना ८१ अर्थात् - ब्रह्म अर्थात् आत्मा, आत्मा में चर्या अर्थात् रमण करना ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्य धर्मसाधना का आधार है। इसकी साधना से आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा है - ब्रह्मचर्य धर्मरूपी पद्मसरोवर की पाल है। वह दया क्षमादि गुणों का आगार है एवं धर्मशाखाओं का आधार है । ब्रह्मचारी की देव-नरेन्द्र पूजा करते हैं । यह संसार का मंगलमय मार्ग है।
देव-दाणव-गंधव्वा जक्ख-रक्खस-किन्नरा। बंभयारिं नमसंति दुक्करं जे करंति ते॥
- उत्तराध्ययनसूत्र अर्थात् - देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस तथा किन्नर आदि देवगण भी दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले ब्रह्मचारी को नमस्कार करते हैं।
अमेरिकन ऋषि 'थोरो' ने कहा है - "ब्रह्मचर्य जीवन-वृक्ष का पुष्प है और प्रतिभा, पवित्रता, वीरता आदि अनेक उसके मनोहर फल हैं।" व्यास के शब्दों में - "ब्रह्मचर्य अमृत है।" जो मनुष्य ब्रह्मचर्य रूपी अमृत का आस्वादन कर लेता है, वह सदा के लिये अमर बन जाता है । ब्रह्मचर्य जीवन की विराट साधना
है।
यदि साधना करते हुए कहीं भी प्रमादवश नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियों का अतिक्रमण किया हो तो उसका प्रस्तुत सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण किया जाता है।
__ ब्रह्मचर्य को भलीभांति सुरक्षित रखने के लिये नव गुप्तियां शास्त्रों में प्रतिपादित की गई हैं । संक्षेप में उनका आशय इस प्रकार है -