________________
५८]
[आवश्यकसूत्र
१. विविक्तवसतिसेवन – स्त्री, पशु और नपुंसकों से युक्त स्थान में न ठहरना। २. स्त्रीकथापरिहार – स्त्रियों की कथावार्ता, सौन्दर्य आदि की चर्चा न करना।
३. निषद्यानुपवेशन – स्त्री के साथ एक आसन पर न बैठे, उसके उठ जाने पर भी एक मुहूर्त तक उस स्थान पर न बैठे।
४. स्त्री-अंगोपांगादर्शन - स्त्रियों के मनोहर अंग, उपांग न देखे । यदि कभी अकस्मात् दृष्टि पड़ जाये तो उसी प्रकार सहसा हटा ले जैसे सूर्य की ओर से दृष्टि हटा ली जाती है।
५.कुड्यान्तर-शब्दश्रवणादिवर्जन – दीवार आदि की आड़ से स्त्री के शब्द, गीत, हास्य, रूप आदि न सुने और न देखे।
६. पूर्वभोगास्मरण - पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करे। ७. प्रणीत-भोजन-त्याग - विकारोत्पादक गरिष्ठ भोजन न करे।
८. अतिमात्र-भोजनत्याग - रूखा-सूखा भोजन भी अधिक मात्रा में न करे। आहार संबंधी ग्रन्थों के अनुसार आधा पेट अन्न से भरे, आधे में से दो भाग पानी के लिये और एक भाग हवा के लिये छोड़ दे। शास्त्रानुसार पुरुष साधक का उत्कृष्ट आहार बत्तीस और नारी साधिका का अट्ठाईस कवल है। कवल का प्रमाण भी बता दिया गया है मयूरी के अंडे जितना।
९. विभूषापरिवर्जन - शरीर की विभूषा-सजावट न करे । इन नौ ब्रह्मचर्य-गुप्तियों में और क्षान्ति, मुक्ति, निर्लोभता, आर्जव (सरलता रखना), मार्दव (मान परित्याग), लाघव (द्रव्य भाव से लघुता), सत्य संयम तप ब्रह्मचर्य एवं त्याग, इस प्रकार दस प्रकार के यतिधर्म में जो कोई अतिचार लगा हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ। ग्यारह उपासकप्रतिमा -
देशविरत श्रावक के अभिग्रहविशेष को प्रतिमा कहते हैं । देव और गुरु की उपासना करने वाला श्रमणोपासक होता है । जब उपासक प्रतिमाओं का आराधन करता है तब प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है । ये प्रतिमाएं ग्यारह हैं।
१. दर्शनप्रतिमा - इस प्रतिमा में श्रावक किसी भी प्रकार का राजाभियोग आदि आगार न रखकर शुद्ध निरतिचार, विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन का पालन करता है । इसमें मिथ्यात्व-अतिचार का त्याग मुख्य है । यह प्रतिमा एक मास की होती है।
२. व्रतप्रतिमा - व्रती श्रावक सम्यक्त्व लाभ के पश्चात् व्रतों की साधना करता है। पांच अणुव्रत आदि व्रतों की प्रतिज्ञाओं को सम्यक् प्रकार से निभाता है। किन्तु सामायिक का यथासमय सम्यक् पालन नहीं