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[ आवश्यकसूत्र
आठ मदस्थान -
१. जातिमद - ऊंची एवं श्रेष्ठ जाति (मातृपक्ष) का अभिमान । २. कुलमद – ऊंचे कुल (पितृपक्ष) का अभिमान । ३. बलमद - अपने बल का घमण्ड करना। ४. रूपमद - अपने रूप का, सौन्दर्य का अभिमान करना। ५. तपोमद – उग्र तपस्वी होने का गर्व करना। ६. श्रुतमद – शास्त्राभ्यास का अर्थात् पंडित होने का घमण्ड करना। ७. लाभप्रद – अभीष्ट वस्तु के मिल जाने पर लाभ का गर्व करना। ८. ऐश्वर्यमद - अपने प्रभुत्व का अहंकार।
विवेचन – ये आठ मद समवायांग सूत्र के उल्लेखानुसार हैं । गणधर गौतम ने श्री महावीर स्वामी से प्रश्न किया था -
माण-विजएणं भंते! जीवे किं जणयइ ? हे भगवन् ! मान पर विजय पाने से जीव को किस लाभ की प्राप्ति होती है?
भगवान ने समाधान दिया - "माणविजएणं महवं जणयइ, माणवेयणिज्जं नवं कम्मं न बंधई, पुव्व-बद्धं च निजरेइ।" - उत्तरा.सू.अ.२९ ।
अर्थात् - मान पर विजय पाने से मृदुता प्राप्त होती है। नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता तथा पूर्वार्जित कर्मों की निर्जरा होती है।
अहंकार से मनुष्य का दिमाग आसमान पर चढ़ जाता है और ऐसी स्थिति में नीचे ठोकर लगने पर सिर फटने की आशंका रहती है।
जगत् में मान, गर्व, अभिमान को कुत्ते के समान माना गया है। जैसे कुत्ता प्रेम करने पर मुंह चाट कर अशुद्ध कर देता है और मारने पर काट खाता है, उसी तरह अहंकार का पोषण करने से अपयश का भागी बनना पड़ता है और जब अहंकार खंडित हो जाता है तो जीवन-लीला समाप्त होने की भी नौबत आ जाती है। इसलिये कहा है -
"मृत्योस्तु क्षणिका पीडा मान-खंडो पदे-पदे।" अर्थात् - मृत्यु की पीड़ा तो क्षणिक होती है, किंतु मान-भंग होने की पीड़ा पद-पद पर कष्ट पहुँचाती है।