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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
[५५ ६. शुक्ललेश्या – यह मनोवृत्ति सबसे अधिक विशुद्ध होने के कारण शुक्ल कहलाती है। इस लेश्या वाला शरीर के निर्वाह के लिये आहार ग्रहण करता है। किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता। राग-द्वेष की परिणति हटाकर वीतराग भाव धारण करता है । परमशुक्ललेश्या वाला आसक्तिरहित होकर सतत समभाव रखता है।
प्रथम की तीन लेश्याएं - कृष्ण, नील एवं कापोत त्याज्य हैं और अन्त की तीन लेश्याएं – तेजो, पद्म एवं शुक्ल उपादेय हैं । अन्तिम शुक्ललेश्या के बिना आत्म-विकास की पूर्णता का होना असंभव है। जीवनशुद्धि के पथ में अधर्म लेश्याओं का आचरण और धर्म लेश्याओं का आचरण न किया हो तो प्रस्तुत सूत्र के द्वारा उसका प्रतिक्रमण किया जाता है। भयादिसूत्र -
भय से लेकर आशातना तक के बोल कुछ उपादेय हैं, कुछ ज्ञेय हैं, कुछ हेय हैं । भयस्थान के सात प्रकार हैं -
१. इहलोकभय - अपनी जाति के प्राणी से डरना इहलोकभय है, जैसे - मनुष्य का मनुष्य से, तिर्यञ्च का तिर्यञ्च से डरना।
२. परलोकभय – दूसरी जाति वाले प्राणी से डरना परलोकभय है, जैसे मनुष्य का देव से या तिर्यञ्च आदि से डरना।
३. आदानभय – चोर आदि द्वारा धन आदि छीने जाने का भय । ४. अकस्मात्भय – बिना कारण ही अचानक डर जाना।
५. आजीविकाभय - दुर्भिक्ष आदि में जीवन-यात्रा के लिये भोजन आदि की अप्राप्ति के दुर्विकल्प से डरना।
६. मरणभय - मृत्यु से डरना। ७. अपयश-अश्लोकभय - अपयश की आशंका से डरना।
भयमोहनीयकर्म के उदय से होने वाले आत्मा के उद्वेग रूप परिणाम-विशेष को भय कहते हैं। साधु को किसी भय के आगे अपने आपको नहीं झुकाना चाहिये। निर्भय रहना अर्थात् न स्वयं भयभीत होना
और न दूसरों को भयभीत करना चाहिये । भय के द्वारा संयम-जीवन दूषित होता है , तदर्थ भय का प्रतिक्रमण किया जाता है।