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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
[६१ बाहर गोदोहासन, वीरासन अथवा आम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है।
११. यह प्रतिमा एक अहोरात्र की होती है। एक दिन और एक रात तक इसकी साधना की जाती है। चौविहार बेले के द्वारा इसकी आराधना होती है । गाँव के बाहर कायोत्सर्ग किया जाता है।
१२. यह प्रतिमा केवल एक रात्रि की है। इसका आराधन बेले को चढ़ाकर चौविहार तेला करके किया जाता है । गाँव के बाहर खड़े होकर, मस्तक को थोड़ा सा झुकाकर किसी एक पुद्गल पर दृष्टि रखकर निर्निमेष नेत्रों से निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है । देव, मनुष्य एवं तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्ग आने पर उन्हें समभाव से सहन किया जाता है। उपसर्ग से चलायमान नहीं होना चाहिये। यदि उपसर्ग से चलायमान हो जाये तो पागल अर्थात् बावला बने या दीर्घकालिक रोग उत्पन्न हो जाये। यदि स्थिर रहे तो अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान तक प्राप्त करता है। तेरह क्रियास्थान -
क्रिया का अर्थ यहां कार्य है। इसके तेरह प्रकार निम्नलिखित हैं -
१. अर्थक्रिया - अपने किसी प्रयोजन के लिये जावों की हिंसा करना, कराना या अनुमोदना करना अर्थक्रिया है।
२. अन्यक्रिया - बिना किसी प्रयोजन के किया जाने वाला पाप कर्म अनर्थक्रिया कहलाता है।
३. हिंसाक्रिया - अमुक व्यक्ति मुझे अथवा मेरे स्नेहियों को कष्ट देता है, देगा अथवा उसने दिया है, या लोचकर किसी प्राणी की हिंसा करना।
४. अकस्माक्रिया – शीघ्रतावश बिना जाने हो जाने वाला पाप अकस्माक्रिया है।
५. दृष्टिविपर्ययक्रिया - मतिभ्रम से होने वाला पाप, यथा-चोरादि के भ्रम में साधारण अनपराधी पुरुष को दण्ड दे देना।
६. मृषाक्रिया – झूठ बोलना। ७. अदत्तादानक्रिमा - चोरी करना। ८. अध्यात्मक्रिया – बाह्य निमित्त के बिना मन में होने वाला शोक आदि। ९. मानक्रिया - अपनी प्रशंसा करना, घमंड करना। १०. मित्रक्रिया – प्रियजनों को कठोर दण्ड देना। ११. मायाक्रिया – दम्भ करना। १२. लोभक्रिया - लोभ करना।