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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
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विशेष ज्ञातव्य -
. प्रस्तुत महाव्रतसूत्र के पश्चात् प्रायः सभी प्राप्त प्रतियों और आवश्यकसूत्र के टीकाग्रन्थों में समितिसूत्र का उल्लेख मिलता है । परन्तु आचार्य जिनदास महत्तर ने लिखा है - "एत्थ केवि अण्णं पि पठन्ति" अर्थात् यहां कुछ आचार्य दूसरे पाठ भी पढ़ते हैं । यथा – पांच आश्रव, पांच संवरद्वार, पांच निर्जराद्वार आदि। समितिसूत्र
सर्वथा जीव हिंसा से निवृत मुनि की आवश्यक निर्दोष प्रवृत्ति को समिति कहते हैं । उत्तम परिणामों की चेष्टा को भी समिति कहते हैं। समिति आगमों का एक सांकेतिक शब्द है। समिति का अर्थ है - विवेकयुक्त होकर प्रवृत्ति करना। समिति पांच प्रकार की है -
१. ईर्यासमिति – कार्य उत्पन्न होने पर विवेकपूर्वक गमन करना तथा दूसरे जीवों को किसी प्रकार की हानि न हो, इस प्रकार उपयोगपूर्वक चलना ईर्यासमिति है।
२. भाषासमिति – आवश्यकता होने पर निर्दोष वचन की प्रवृत्ति करना, अर्थात् हित, मित, सत्य एवं स्पष्ट वचन कहना भाषासमिति है।
३. एषणासमिति – आहारादि सम्बन्धी बयालीस दोषों को टालकर निर्दोष भिक्षा ग्रहण करना, ५ मण्डल सम्बन्धी दोष टालकर भोगना एषणासमिति है।
४. आदान-भाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति – वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि उपकरणों को उपयोगपूर्वक ग्रहण करना एवं जीव रहित प्रमार्जित भूमि पर निक्षेपण करना-रखना आदान-भाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति है।
५. पारिष्ठापनिकासमिति – मल, मूत्र, कफ, थूक, नासिकामल आदि या भुक्तशेष भोजन तथा भग्न पात्र आदि परठने योग्य वस्तु जीव रहित एकान्त स्थण्डिल-भूमि में परठना, जीवादि उत्पन्न न हों, एतदर्थ उचित यतनापूर्वक परठना पारिष्ठापनिकासमिति है। जीवनिकायसूत्र -
'जीवनिकाय' शब्द जीव और निकाय इन दो शब्दों से बना है। जीव का अर्थ है – चेतन प्राणी तथा निकाय का अर्थ है – राशि अर्थात् समूह । जीवों की राशि को जीवनिकाय कहते हैं । पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस, ये छह निकाय हैं । इन छह निकायों में अर्थात् समूहों में समस्त संसारी जीवों का
१. "पडिक्कमामि पंचहिं आसवदारेहिं - मिच्छत-अविरति-पमाद-कसायजोगेहिं, पंचहि अणासवदारेहिं - सम्मत्त-विरति
अप्पमाद अकसायित्त-अजोगित्तेहिं, पंचहिं निजर-ठाणेहिं, नाण-दसंण-चरित्त-तव-संजमेहिं।" २. "भाषासमिति म हितमितासंदिग्धार्थभाषणम्।"
- आचार्य हरिभद्र।