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क्रिया सावद्ययोग से उपरत होने के कारण उपरतकायिकी कहलाती है।
२. आधिकरिणीक्रिया जिसके द्वारा आत्मा नरक आदि दुर्गति का अधिकारी होता है, वह पाप का साधन खड्गादि या दुर्मंत्रादि का अनुष्ठान-विशेष अधिकरण कहलाता है, उससे होने वाली क्रिया । ३. प्राद्वेषिकीक्रिया - प्रद्वेष का अर्थ मत्सर, डाह, ईर्ष्या होता है। यह अकुशल परिणाम कर्मबन्ध का प्रबल कारण माना जाता है। अतः जीव या अजीव किसी भी पदार्थ पर द्वेष्यभाव रखना, प्राद्वेषिकीक्रिया
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४. पारितापनिकीक्रिया
ताड़न आदि के द्वारा दिया जाने वाला दुःख परितापन कहलाता है। परितापन से निष्पन्न होने वाली क्रिया, पारितापनिकी क्रिया कहलाती है । स्व तथा पर के भेद से पारितापनिकी क्रिया दो प्रकार की होती है। अपने आपको परिताप पहुंचाना स्वपारितापनिकी और अन्य प्राणी को परिताप पहुंचाना पर - पारितापनिकीक्रिया है ।
[ आवश्यकसूत्र
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५. प्राणातिपातिकीक्रिया - प्राणों का अतिपात या विनाश प्राणातिपात कहलाता है । प्राणातिपात से होने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी कहलाती है। इसके दो भेद हैं- क्रोधादि कषायवश होकर अपनी हिंसा करना, स्वहस्तप्राणातिपातिकी क्रिया है और इसी प्रकार दूसरे की हिंसा करना, परप्राणातिपातिकी क्रिया है।
कामगुणसूत्र
विषय
प्रस्तुत सूत्र में उल्लेख है कि यदि संयम यात्रा करते हुये कहीं कामगुण अर्थात् पाँच इन्द्रियों के शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श, इन विषयों में मन भटक गया हो, तटस्थता को छोड़ राग-द्वेष युक्त हो गया हो, मोहजाल में फंस गया अर्थात् इष्ट शब्दादि में राग और अनिष्ट में द्वेष उत्पन्न हुआ हो तो उसे वहाँ से हटाकर पुन: संयम पथ पर अग्रसर करना चाहिये। यही कामगुणों से आत्मा का प्रतिक्रमण है ।
महाव्रतसूत्र
साधु हिंसा, असत्य, अदत्तादान, आदि का सर्वथा त्याग करता है अर्थात् अहिंसा आदि महाव्रतों की नवकोटि से सदा सर्वथा पूर्ण आराधना करता है, फलतः साधु के अहिंसा आदि व्रत महाव्रत कहलाते हैं । महाव्रत साधु के पांच मूलगुण कहे जाते हैं। इसके अतिरिक्त शेष आचार उत्तरगुण कहलाते हैं । उत्तरगुणों की उपयोगिता मूलगुणों की रक्षा में है, स्वयं स्वतंत्र उनका कोई प्रयोजन नहीं। महाव्रत तीन करण और तीन योग से ग्रहण किये जाते हैं। जीवन पर्यन्त किसी भी प्रकार की हिंसा न स्वयं करना, न दूसरे कराना, न करने वालों का अनुमोदन करना, मन से, वचन से और काय से यह अहिंसा महाव्रत हैं। इसी प्रकार असत्य, स्तेय, मैथुन एवं परिग्रह आदि के त्याग के सम्बन्ध में भी नवकोटि की प्रतिज्ञा का भाव समझ लेना चाहिये ।