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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
[४५ सिद्धों के इकतीस आदि या सर्वोत्कृष्ट गुणों से, बत्तीस योगसंग्रहों से, तेतीस आशातनाओं से, यथा अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, देव, देवी, इहलोक, परलोक, केवलिप्ररूपित धर्म, देव-मनुष्यों-असुरों सहित समग्र लोक, समस्त प्राण-विकलत्रय, भूत-वनस्पति, जीव-पंचेन्द्रिय, सत्त्व-पृथ्वीकाय आदि चार स्थावर, तथैव काल, श्रुत-शास्त्र, श्रुत-देवता वाचनाचार्य - इन सबकी आशातना से,
तथा व्याविद्ध – सूत्र के पाठों को या सूत्र के अक्षरों को आगे-पीछे किया हो, व्यत्यानेडितशून्य-चित्त से कई बार पढ़ता ही रहा हो, अन्य सूत्र का पाठ अन्य सूत्र में मिलाया हो, अक्षर छोड़ कर पढ़ा हो, अत्यक्षर-अक्षर बढ़ा दिये हों, पदहीन पढ़ा हो, शास्त्र एवं शास्त्राध्यापक का समुचित विनय न किया हो, घोषहीन – उदात्तादि स्वरों से रहित पढ़ा हो, योगहीन-उपधानादि तपोविशेष के बिना अथवा उपयोग के बिना पढ़ा हो, सुष्ठुदत्त – अधिक ग्रहण करने की योग्यता न रखने वाले शिष्य को भी अधिक पाठ दिया हो, दुष्ठुप्रतीच्छित – वाचनाचार्य के द्वारा दिये हुए आगमपाठ को दुष्ट भाव से ग्रहण किया हो, अकालस्वाध्याय – कालिक, उत्कालिक सूत्रों को उनके निषद्ध काल में पढ़ा हो, अस्वाध्याय के समय स्वाध्याय किया हो, स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न किया हो।
इस प्रकार श्रुतज्ञान की चौदह आशातनाओं से, और सब मिला कर तेतीस आशातनाओं से जो भी अतिचार हो, तत्सम्बन्धी मेरा दुष्कृत-पाप मिथ्या हो।
विवेचन - असंयमसूत्र - असंयम, संयम का विरोधी है। असंयम ही समस्त सांसारिक दुःखों का मूल है। चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होने वाले राग-द्वेष रूप कषाय आदि भावों का नाम असंयम है। लोभ एवं तृष्णा से ये मन की दुष्ट वृत्तियां हैं । इन वृत्तियों पर जो संयम नहीं रखता है, अथवा नियंत्रण नहीं रखता है वह इनका दास है, गुलाम है। वह कभी आत्मविजेता नहीं बन सकता। अतः आत्मविजेता बनने के लिये आत्मसंयम परम आवश्यक है। जो आत्मसंयम नहीं रख सकता, अपने मन एवं इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित नहीं करता, वह इच्छाओं के वशीभूत होकर कभी शांति-समाधि नहीं पा सकता और इच्छाएं तो आकाश के समान अनन्त हैं । उनकी कभी पूर्ति नहीं हो सकती। शास्त्रकार कहते हैं - 'इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।'
- उत्तराध्ययन सू. अ. ९ ___ यद्यपि संयम के १७ भेद होने से उसके विरोधी असंयम के भी १७ भेद हैं और विस्तार की विवक्षा से अन्य भेद भी हो सकते हैं, जो आगे गिनाये भी गये हैं। किन्तु सामान्यग्राही संग्रहनय की अपेक्षा से यहाँ एक ही प्रकार कहा गया है।