Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 118
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ] [४७ विकल्प न करना, धर्म-ध्यान संबंधी चिन्तन करना, मध्यस्थ भाव रखना मनोगुप्ति है। मनोगुप्ति के चार भेद - द्रव्य से आरंभ-समारंभ में मन न प्रवर्तावे, क्षेत्र से समस्त लोक में, काल से जीवनपर्यंत और भाव से विषय-कषाय आर्त्त-रौद्र ध्यान, राग-द्वेष में मन न प्रवर्तावे। वचनगुप्ति के चार भेद - द्रव्य से चार प्रकार की विकथा न करना, क्षेत्र से समस्त लोक में, काल से जीवनपर्यंत, भाव से सावध वचन न बोलना। कायगुप्ति के चार भेद - द्रव्य से शरीर की शुश्रूषा न करे, क्षेत्र से समस्त लोक में, काल से जीवनपर्यंत, भाव से सावध योग न प्रवर्ताना। शल्यसूत्र - ___माया, निदान और मिथ्यादर्शन, ये तीनों दोष आगम की भाषा में शल्य कहलाते हैं । जिसके द्वारा अन्तर पीड़ा सालती रहती हो, कसकती रहती हो वह तीर, कांटा आदि द्रव्य शल्य हैं । माया आदि भाव शल्य हैं । आचार्य हरिभद्र के अनुसार व्युत्पत्ति इस प्रकार है - "शल्यतेऽनेनेति शल्यम्।" आध्यात्मिक क्षेत्र में माया, निदान और मिथ्यादर्शन को शल्य इसलिये कहा है कि जिस प्रकार शरीर के किसी भाग में कांटा, कील तथा तीर आदि तीक्ष्ण वस्तु घुस जाये तो वह मनुष्य को क्षुब्ध बना देती है, उसी प्रकार अंतर में रहा हुआ सूत्रोक्त शल्यत्रय भी साधक की अन्तर आत्मा को सालता रहता है। तीनों ही शल्य तीव्र कर्मबन्ध के हेतु १. मायाशल्य - माया का अर्थ है कपट । माया एक तीक्ष्ण धार वाली असि है जो आपसी स्नेहसंबंध को क्षणभर में काट देती है। दशवैकालिकसूत्र में कहा है – 'माया मित्ताणि नासेइ' अर्थात् मायाचार करने से मित्रों - मैत्रीभाव का विनाश होता है। २. निदानशल्य - धर्माचरण के सांसारिक फल की कामना करना, भोगों की लालसा रखना निदानशल्य है। ३. मिथ्यादर्शनशल्य - सत्य पर श्रद्धा न लाना एवं असत्य का कदाग्रह रखना मिथ्यादर्शनशल्य है। इस प्रकार तीनों शल्यों से होने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। गौरवसूत्र एवं विराधनासूत्र - आचार्य आदि की पदप्राप्ति रूप ऋद्धिगौरव, मधुर आदि प्रिय रस की प्राप्ति का अभिमान रूप

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