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प्रथम अध्ययन : सामायिक ]
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नहीं करने योग्य है, दुर्ध्यान-आर्तध्यान रूप है, दुर्विचिन्तित-रौद्रध्यान रूप है, नहीं आचरने योग्य है, नहीं चाहने योग्य है, संक्षेप में साधुवृत्ति के सर्वथा विपरीत है-साधु को नहीं करने योग्य है।
योग-निरोधात्मक तीन गुप्ति, चार कषायों की निवृत्ति, पाँच महाव्रत, छह पृथिवीकाय, जलकाय आदि जीवनिकायों की रक्षा, सात पिण्डैषणा-(१. असंसृष्टा, २. संसृष्टा, ३. उद्धृता, ४. अल्पलेपा, ५. अवगृहीता, ६. प्रगृहीता, ७. उज्झितधर्मिका), आठ प्रवचन माता (पाँच समिति, तीन गुप्ति), नौ ब्रह्मचर्यगुप्ति, दशविध श्रमणधर्म (श्रमण-सम्बन्धी कर्तव्य) यदि खण्डित हुये हों, अथवा विराधित हुये हों, तो वह सब पाप मेरे लिये निष्फल हो।
विवेचन – मानव, देव एवं दानव के बीच की कड़ी है । वह अपनी सद्वृत्तियों के द्वारा देवत्व को प्राप्त कर सकता है और असद्वृत्तियों के द्वारा दानव जैसी निम्न कोटि में भी पहुंच सकता है। मनुष्य के पास तीन महान् शक्तियाँ हैं - मन, वचन एवं काय । इन शक्तियों के बल पर वह प्रशस्त-अप्रशस्त चाहे जैसा जीवन बना सकता है। सन्तों-मुनिजनों को तो कदम-कदम पर मन, वचन और शरीर की शुभाशुभ चेष्टाओं का ध्यान रखना चाहिये। इस विषय मे जरा भी असावधानी भयंकर पतन का कारण बन सकती है। प्रस्तुत प्रतिक्रमण-सूत्र के पाठ द्वारा इन्हीं तीन शक्तियों-योगों से रात-दिन में होने वाली भूलों का परिमार्जन किया जाता है और भविष्य में सावधान रहने की सुदृढ़ धारणा बनाई जाती है । यह प्रतिक्रमण का प्रारम्भिक सूत्र है। इसमें आचार-विचार सम्बन्धी भूलों का संक्षेप में प्रतिक्रमण किया जाता है।
कुछ पारिभाषिक शब्दों का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
'उस्सुत्तो' – उस्सुत्तो का संस्कृत रूप 'उत्सूत्र' होता है । उत्सूत्र का अर्थ-सूत्र अर्थात् आगम से विरुद्ध आचरण।
'उम्मगो' – उन्मार्ग रूप अर्थात् क्षायोपशमिक भाव का उल्लङ्घन करके औदयिक भाव में संक्रमण करना उन्मार्ग है । चारित्रावरण कर्म का जब क्षयोपशम होता है, तब चारित्र का आविर्भाव होता है और जब चारित्रावरण कर्म का उदय होता है तब चारित्र का घात होता है। अतः साधक को प्रतिपल उदय : क्षायोपशमिक भाव में संचरण करते रहना चाहिये। मार्ग का अर्थ परम्परा भी है।
'अकप्पो' - चरण एवं करण रूप धर्मव्यापार कल्प अर्थात् आचार कहलाता है। चरण-करण के विरुद्ध आचरण करना अकल्प है।
'सुए' – अर्थात् श्रुत का अर्थ है श्रुतज्ञान । वीतराग तीर्थंकर भगवान् के श्रीमुख से सुना हुआ होने से आगम-साहित्य को श्रुत कहा जाता है । लिपिबद्ध होने से पूर्व आगम श्रुतिपरम्परा से ही ग्रहण किये जाते थे अर्थात् गुरु अपने शिष्य को और शिष्य अपने शिष्य को मौखिक रूप में आगम प्रदान करता था। इस कारण