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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
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शय्यासूत्र
इच्छामि पडिक्कमिडं, पगामसिजाए, निगामसिज्जाए, संथाराउव्वट्टणाए, परियट्टणाए, आउंटणाए, पसारणाए, छप्पईसंघट्टणाए, कूइए, कक्कराइए, छीए, जंभाइए, आमोसे ससरक्खामोसे आउलमाउलाए, सोवणवत्तियाए, इत्थीविप्परियासियाए' दिट्ठिविप्परियासियाए, मणविप्परियासियाए, पाण-भोयणविप्परियासियाए, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं॥
भावार्थ – मैं शयन सम्बन्धी प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। शयनकाल में यदि देर तक सोता होऊँ या बार-बार बहुत काल तक सोता रहा होऊँ, अयतना के साथ एक बार करवट ली हो, या बार-बार करवट बदली हो, हाथ और पैर आदि अंग अयतना से समेटे हों तथा पसारे हों, षट्पदी - जूं आदि क्षुद्र जीवों को कठोर स्पर्श के द्वारा पीड़ा पहुंचाई हो, बिना यतना के अथवा जोर से खांसा हो, यह शय्या बड़ी कठोर है, आदि शय्या के दोष कहे हों, अयतना से छींक एवं जंभाई ली हो, बिना पूंजे शरीर को खुजलाया हो अथवा किसी भी वस्तु का स्पर्श किया हो, सचित्त रजयुक्त वस्तु का स्पर्श किया हो-(ये सब शयनकालीन जागते समय के अतिचार हैं।)
___अब सोते समय स्वप्न-अवस्था सम्बन्धी अतिचार कहे जाते हैं – स्वप्न में युद्ध, विवाहादि के अवलोकन से आकुलता-व्याकुलता रही हो, स्वप्न में मन भ्रान्त हुआ हो, स्वप्न में स्त्री के साथ कुशील सेवन किया हो, स्त्री आदि को अनुराग की दृष्टि से देखा हो, मन में विकार आया हो, स्वप्न दशा में रात्रि में आहरपानी का सेवन किया हो या सेवन करने की इच्छा की हो, इस प्रकार मेरे द्वारा शयन सम्बन्धी जो भी अतिचार किया हो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड़' अर्थात् वह सब मेरा पाप निष्फल हो।
विवेचन - हमारी आत्मा का प्रत्येक प्रदेश जड़ से आबद्ध-प्रतिबद्ध है। प्रत्येक आत्म-प्रदेश पर कर्मकीट के अनन्त पटल लगे हैं और उस कर्म-कालिमा से आत्मा कलुषित बनी हुई है। जब तक कर्मकालिमा बनी रहेगी, तब तक जन्म-मरण – रोग-शोक और संयोग-वियोगादि दुःख भी बने रहेंगे। अनादि काल से ऐसा ही चला आ रहा है। आत्म-बद्ध कर्म-कीट को हटाकर आत्मा को निर्मल शुद्ध बनाने से ही दुःख परम्परा नष्ट हो सकती है । ' जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घट:' की उक्ति के अनुसार बूंद-बूंद से घट भर जाता है और पाई-पाई जोड़ते हुये तिजोरी भर जाती है । धर्म-साधना के लिये भी ठीक यही बात है।
___ यद्यपि सभी धर्म प्रवर्तकों एवं प्रचारकों ने अपनी अपनी दृष्टि से धर्मसाधना के लिये अनिवार्य विवेक का विवेचन किया है, फिर भी जितना सूक्ष्म एवं भावपूर्ण विवेचन एवं विश्लेषण जैनागमों में किया गया है वैसा अन्यत्र नहीं। जैन संस्कृति की प्रत्येक क्रिया विवेकमय है । दशवैकालिक सूत्र में कहा है –
१. स्त्री साधक 'इत्थीविप्परियासिआए' के स्थान पर 'पुरिसविप्परियासिआए' पढ़ें।