________________
चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ]
[३७ भावार्थ – गोचरचर्या रूप भिक्षाचर्या में, यदि ज्ञात अथवा अज्ञात किसी भी रूप में जो भी अतिचार-दोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
अर्ध खुले किवाड़ों को खेलना, कुत्ते, बछड़े और बच्चों का संघठ्ठा-स्पर्श करना, मण्डीप्राभृतिक अग्रपिण्ड लेना, बलिप्राभृतिक-बलि के लिये तैयार किया हुआ भोजन लेना, स्थापनाप्राभृतिक-भिक्षुओं को देने के उद्देश्य से अलग रखा हुआ भोजन लेना, आधाकर्म आदि की शंका वाला आहार लेना, सहसाकारबिना सोचे-विचारे शीघ्रता से आहार लेना, बिना एषणा – छान-बीन किए लेना, पान-भोजन-पानी आदि पीने योग्य वस्तु की एषणा में किसी प्रकार की त्रुटि करना , जिसमें कोई प्राणी हो, ऐसा भोजन लेना, बीजभोजन-बीजों वाला भोजन लेना, हरित-भोजन-सचित्त वनस्पत्ति वाला भोजन, पश्चात्-कर्म-साधु को आहार देने के बाद तदर्थ सचित्त जल से हाथ या पात्रों को धोने आदि के कारण लगने वाला दोष, पुर:कर्मसाधु को आहार देने के पहले सचित्त जल से हाथ या पात्रों को धोने आदि के कारण लगने वाला दोष, अदृष्टाहत-बिना देखा लाया भोजन लेना, उदकसंसृष्टाहृत-सचित्त जल के साथ स्पर्श वाली वस्तु लेना, सचित्त रज से स्पृष्ट वस्तु लेना, पारिशाटनिका-देते समय मार्ग में गिरता-बिखरता हुआ दिया जाने वाला आहार लेना, पारिष्ठापनिका--आहार देने के पात्र में पहले से रहे हुये किसी भोजन को डालकर दिया जाने वाला अन्य भोजन लेना, अथवा बिना कारण 'परठने-योग्य' कालातीत अयोग्य वस्तु ग्रहण करना। बिना कारण माँगकर विशिष्ट वस्तु लेना, उद्गम-आधाकर्म आदि १६ उद्गम दोषों से युक्त भोजन लेना, उत्पादन-धात्री आदि १६ साधु की तरफ से लगने वाले उत्पादना दोषों सहित आहार लेना। एषणा- ग्रहणैषणा संबंधी शंकित आदि १० दोषों से सहित आहार लेना।
उपर्युक्त दोषों वाला अशुद्ध-साधुमर्यादा के विपरीत आहार-पानी ग्रहण किया हो, ग्रहण किया हुआ भोग लिया हो, किन्तु दूषित जानकर भी परठा न हो, तो मेरा समस्त पाप मिथ्या हो।
विवेचन - जैनधर्म अहिंसाप्रधान धर्म है । अहिंसक करुणा का सागर, दया का आगार, सद्भावना का सरोवर, सरसता का स्रोत तथा अनुकम्पा का उत्स होता है। वह प्रत्येक साधना में उपयोग-सावधानी रखता है तथा साधना की प्रगति के लिये खान-पान, आचार-विचार, आहार-विहार की विशुद्धि को बड़ा महत्त्व देता है।
संयमसाधना के लिये मानव जीवन आवश्यक है और जीवन को टिकाये रहने के लिये आहारपानी का सेवन अनिवार्य है। आहार-पानी आरम्भ-समारंभ के बिना तैयार नहीं होता और साधु आरंभ समारंभ का त्यागी होता है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाये ? जैनागमों में इस समस्या का बहुत ही सुन्दर समाधान किया है । प्रस्तुत पाठ उसी समाधान का बोधक है। प्रथम तो यह कि साधु भिक्षावृत्ति से जीवननिर्वाह करे और भिक्षावृत्ति में भी निर्दोष आहार ग्रहण करे। उसे जिन दोषों से बचना है, वे दोष इस पाठ में प्रतिपादित किये गये हैं।