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[ आवश्यकसूत्र स्वाध्याय परम तप है। नवीन ज्ञानार्जन के लिये, अर्जित ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिये तथा ज्ञानावरणकर्म की निर्जरा के लिये स्वाध्याय ही एक सबल साधन है । स्वाध्याय की एक बड़ी विशेषता हैचित्त की एकाग्रता । स्वाध्याय से चंचल चित्त की दौड़धूप रुक जाती है और वह केन्द्रित हो जाता है । यही कारण है कि उसके लिये चार प्रहर नियत किये गये हैं।
स्थानांगसूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि ने स्वाध्याय का अर्थ करते हुये लिखा है - भलिभांति मर्यादा के साथ अध्ययन करना स्वाध्याय है – 'सुष्ठु आमर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः'।
- स्थानांग २ स्था. १३० शास्त्रकारों ने स्वाध्याय को नन्दनवन की उपमा दी है। जिस प्रकार नन्दनवन में प्रत्येक दिशा के भव्य से भव्य दृश्य मन को आनन्दित करने के लिये होते हैं, वहाँ जाकर मानव सब प्रकार के कष्टों को भूल जाता है, उसी प्रकार स्वाध्याय रूप नन्दनवन में भी एक से एक सुन्दर एवं शिक्षाप्रद दृश्य देखने को मिलते हैं तथा मन दुनियावी झंझटों से मुक्त होकर एक अलौकिक लोक में विचरण करने लगता है। स्वाध्याय हमारे अन्धकारपूर्ण जीवनपथ के लिये दीपक के समान है।
प्रतिलेखना – साधु के पास जो भी वस्त्र-पात्र आदि उपाधि हो, उसकी प्रात:काल एवं सायंकाल प्रतिलेखना करनी होती है। उपधि को बिना देखे पूंजे उपयोग में लाने से हिंसा का दोष लगता है। शास्त्रोक्त समय पर स्वाध्याय या प्रतिलेखना न करना, शास्त्रनिषिद्ध समय पर करना, स्वाध्याय एवं प्रतिलेखना पर श्रद्धा न रखना तथा इस सम्बन्ध में मिथ्या प्ररूपणा करना, या उचित विधि से न करना आदि स्वाध्याय एवं प्रतिलेखन रूप अतिचार-दोष हैं।
यह काल-प्रतिलेखना सूत्र स्वाध्याय तथा प्रतिलेखन करने के बाद पढ़ना चाहिये। प्रस्तुत पाठ में आये हुये अतिक्रम आदि का अर्थ इस प्रकार है - १. अतिक्रम - गृहीत व्रत या प्रतिज्ञा को भंग करने का विचार करना। २. व्यतिक्रम – व्रतभंग के लिये उद्यत होना। ३. अतिचार - आंशिक रूप से व्रत को खंडित करना।
४. अनाचार – व्रत को पूर्ण रूप से भंग करना। तेतीस बोल का पाठ
पडिक्कमामि एगविहे असंजमे। पडिक्कमामि दोहिं बंधणेहि-रागबंधणेणं, दोसबंधणेणं। पडिक्कमामि तिहिं दंडेहि-मणदंडेणं, वयदंडेणं, कायदंडेणं।