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[ आवश्यकसूत्र
जैन भिक्षु के लिये नवकोटि-परिशुद्ध आहार ग्रहण करने का प्रावधान किया गया है । नवकोटि इस प्रकार हैं – न स्वयं भोजन पकाना, न अपने लिये दूसरों से कहकर पकवाना, न पकाते हुये का अनुमोदन करना। न खुद बना-बनाया खरीदना, न अपने लिये दूसरों से खरीदवाना और न खरीदने वाले का अनुमोदन करना। न स्वयं किसी को पीड़ा देना, न दूसरे से पीड़ा दिलवाना और न पीड़ा देने वाले का अनुमोदन करना। इस प्रकार जैनधर्म में बहुत सूक्ष्म अहिंसा की मर्यादा का ध्यान रखा गया है।
विशिष्ट शब्दों का अर्थ – गोचरचर्या – अर्थात् जिस प्रकार एक गाय वन में घास का तिनका जड़ से न उखाड़ कर, ऊपर से खाती हुई घूमती-आगे बढ़ जाती है और अपनी क्षुधानिवृत्ति कर लेती है , इसी प्रकार मुनि भी किसी गृहस्थ को पीड़ा न देता हुआ थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करके अपनी क्षुधानिवृत्ति करता है । दशवैकालिक सूत्र में इसके लिये मधुकर अर्थात् भ्रमर की उपमा दी है। भ्रमर भी फूलों को बिना कुछ हानि पहुँचाये थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता हुआ, आत्म-तृप्ति कर लेता है।
कपाटोद्घाटन – गृहस्थ के घर के द्वार के बंद किवाड़ खोल कर आहार-पानी लेना सदोष है , क्योंकि बिना प्रमार्जन किए कपाट-उद्घाटन से जीव-विराधना की सम्भावना रहती है। इस प्रकार घर में प्रवेश करके आहार लेने से साधक की असभ्यता भी प्रतीत होती है, क्योंकि गृहस्थ अपने घर के अन्दर किसी विशेष कार्य में संलग्न हो और साधु अचानक किवाड़ खोलकर अन्दर जाए तो यह उचित नहीं है । यह उत्सर्ग मार्ग है। यदि किसी विशेष कारण से आवश्यक वस्तु लेनी हो तथा यतनापूर्वक किवाड़ खोलने हों तो स्वयं खोले अथवा किसी अन्य से खुलवाये जा सकते हैं । यह अपवाद मार्ग है।
मंडीप्राभृतिका - अर्थात् अग्रपिण्ड लेना। तैयार किये हुये भोजन के कुछ अग्र-अंश को पुण्यार्थ निकाल कर जो रख दिया जाता है, वह अग्रपिंड कहलाता है।
बलिप्राभृतिका – देवी-देवता आदि की पूजा के लिये तैयार किया हुआ भोजन बलि कहलाता है। ऐसा आहार लेना साधु को नहीं कल्पता है।
संकिए - आहार लेते समय भोजन के सम्बन्ध में किसी प्रकार की भी आधाकर्मादि दोष की आशंका से युक्त, ऐसा आहार कदापि नहीं लेना चाहिये।
सहसाकार – 'उतावला सो बावला' शीघ्रता में कार्य करना, क्या लौकिक और क्या लोकोत्तर दोनों ही दृष्टियों से अहितकर है।
___ अदृष्टाहत - गृहस्थ के घर पर पहुँचकर साधु को जो भी वस्तु लेनी हो, वह जहां रखी हो, स्वयं अपनी आँखों से देखकर लेनी चाहिये। बिना देखे ही किसी वस्तु को ग्रहण करने से अदृष्टाहत दोष लगता है। भाव यह है कि देय वस्तु न मालूम किसी सचित्त वस्तु पर रखी हुई हो, अत: उसके ग्रहण करने से जीवविराधना दोष लग सकता है । अतएव बिना देखे किसी भी वस्तु को लेना ग्राह्य नहीं है।