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[ आवश्यकसूत्र
जयं चरे, जयं चिट्टे, जयमासे, जयं सये।
जयं भुजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ॥ जो साधक यतना से चलता है, यतना से खड़ा होता है, यतना से बैठता है, यतना से सोता है, यतना से भोजन करता और बोलता है, वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता।
साधारण से साधारण साधक भी छोटी-छोटी साधनाओं पर लक्ष्य देता रहे, विवेक-यतना को विस्मृत न करे तो एक दिन वह बहुत ऊँचा साधक बन सकता है और इसके विपरीत साधारण-सी भूलों की उपेक्षा करते रहने से तथा विवेक नहीं रखने से उच्चतर श्रेणी के साधक का भी अधःपतन हो सकता है । यही कारण है कि जैन आचारशास्त्र सूक्ष्म भूलों पर भी ध्यान रखने का संकेत करता है।
प्रस्तुत सूत्र शयन सम्बन्धी अतिचारों का प्रतिक्रमण करने के लिये है । सोते समय जो भी शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक किसी भी प्रकार की भूल हुई हो, संयम का अतिक्रमण किया हो किसी भी प्रकार का भाव-विपर्यास हुआ हो, उस सबके लिये पश्चात्ताप करने का – 'मिच्छा मि दुक्कड़' देने का विधान प्रस्तुत शय्या-सूत्र में किया गया है।
विशिष्ट शब्दों का अर्थ - पगामसिजाए – का संस्कृत रूप 'प्रकामशय्या' होता है । प्रकामशय्या का अर्थ है – मर्यादा से अधिक सोना। निगामसिजाए - बार-बार अधिक काल तक सोते रहना, निकामशय्या है । कूइए - खांसते हुये। कक्कराइए – 'कर्करायित' शब्द का अर्थ है कुड़कुड़ाना। शय्या विषम हो या कठोर हो तो साधु को समता एवं शांति के साथ उसका सेवन करना चाहिये। साधक को शय्या के दोष कहते हुये कुड़कुड़ाना-बड़बड़ाना नहीं चाहिये । आमोसे - प्रमार्जन किये बिना शरीर या अन्य वस्तु का स्पर्श करना। ससरक्खामोसे - सचित्त रज से युक्त वस्तु को छूना। आउलमाउलाए - आकुलताव्याकुलता से । सोवणवत्तियाए – स्वप्न के प्रत्यय – निमित्त से।
प्रस्तुत-शय्या-सूत्र को, जब भी साधक सोकर उठे, अवश्य पढ़ना चाहिये । इसे निद्रादोषनिवृत्ति का पाठ भी कहा जाता है । यह पाठ पढ़कर बाद में एक लोगस्स अथवा चार लोगस्स का पाठ भी पढ़ना चाहिये। भिक्षादोषनिवृत्तिसूत्र
पडिक्कमामि गोयरग्गचरि याए, भिक्खायरियाए उग्घाड क वाड-उग्घाडणाए, साणावच्छादारासंघट्टणाए, मंडी-पाहुडियाए, बलिपाहुडियाए, उवणापाहुडियाए, संकिए, सहसागारे, अणेसणाए, पाणेसणाए पाणभोयणाए, बीयभोयणाए, हरियभोयणाए, पच्छाकम्मियाए, पुरेकम्मियाए, अदिट्ठहडाए, दगसंसट्ठहडाए, रयसंसट्ठहडाए, पारिसाडणियाए, पारिट्ठावणियाए, ओहासण-भिक्खाए, जं उग्गमेणं, उप्पायणेसणाए अपरिसुद्धं परिग्गहियं, परिभुत्त वा जं न परिट्ठवियं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।