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प्रथम अध्ययन : सामायिक ]
[११ (२) सिद्ध भगवान् लोक में उत्तम हैं। (३) साधु-महाराज लोक में उत्तम हैं। (४) सर्वज्ञप्ररूपित धर्म लोक में उत्तम है।
विवेचन - आगमकारों ने कहा है कि उत्तम चार हैं । अनन्त काल से भटकती हुई भव्य आत्माओं को उत्थान के पथ पर ले जाने वाले अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म ये चार ही उत्तम हैं तथा जो उत्तम होता है, वही मंगल होता है । यह बात विश्व-विख्यात है कि आज संसार का प्रत्येक प्रबुद्ध प्राणी उत्तम की शोध में लगा हुआ है, चाहे वह सामाजिक क्षेत्र हो, राजनैतिक क्षेत्र हो अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र हो । चार उत्तमों में अरिहन्त और सिद्ध परमात्मा के रूप में उत्तम हैं । कर्म-मल के दूर हो जाने के बाद आत्मा का शुद्ध ज्योति रूप हो जाना ही परमात्मत्व है । साधु पद में आचार्य, उपाध्याय और मुनि, महात्मा के रूप में उत्तम हैं । आत्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा बनने के लिये धर्म ही एकमात्र उत्तम एवं उत्कृष्ट साधन है । कहा भी है - 'धारणाद् धर्मः' अर्थात् दुर्गति में गिरती हुई आत्माओं को जो धारण करता है , बचाता है, वही उत्तम धर्म है।
___ आगमकार ने इसी सिद्धान्त पर प्रकाश डाला है कि धर्म सब मंगलों का मूल है । यदि पुष्प में सुगन्ध न हो, अग्नि में उष्णता न हो, जल में शीतलता न हो, मिश्री में मिठास न हो तो उनका क्या स्वरूप रहेगा ? कुछ भी नहीं। ठीक यही दशा धर्महीन मानव की है। कहा भी है - "धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः " अर्थात् धर्महीन मानव और पशु में कोई अंतर नहीं - दोनों समान हैं । धर्म की साधना शुभ की साधना है । साधना दो प्रकार की है – १. नीति की साधना और २. धर्म की साधना। नीति की साधना, पुण्य की साधना है। यह साधना केवल नैतिकता तक ले जा सकती है और धर्म-प्रसाद की नींव का काम करती है। धर्म की साधना मुक्ति तक ले जाती है। शरणसूत्र
चत्तारि सरणं पवजामि - अरिहंते सरणं पवजामि, सिद्धे सरणं पवजामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलि-पण्णत्तं धम्म सरणं पवजामि। भावार्थ – मैं चार की शरण स्वीकार करता हूँ - (१) अरिहंतों की शरण स्वीकार करता हूँ,