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ताव कार्य ठाणेणं मोणेणं झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि ।
[ आवश्यकसूत्र
भावार्थ आत्मा की विशेष उत्कृष्टता, निर्मलता या श्रेष्ठता के लिये, प्रायश्चित्त के लिये, शल्यरहित होने के लिये, पाप कर्मों का पूर्णतया विनाश करने के लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ ।
कायोत्सर्ग में काय व्यापारों का परित्याग करता हूँ, निश्चल होता हूँ । परन्तु जो शारीरिक क्रियायें अशक्य परिहार होने के कारण स्वभावतः हरकत में आ जाती हैं उनको छोड़कर। (वे क्रियायें इस प्रकार हैं - )
ऊँचा श्वास, नीचा श्वास, खांसी, छींक, उबासी, डकार, अपान वायु का निकलना, चक्कर आना, पित्तविकार-जन्य मूर्च्छा, सूक्ष्म रूप से अंगों का हिलना, सूक्ष्म रूप से कफ का निकलना, सूक्ष्म रूप से नेत्रों की हरकत से अर्थात् संचार से, इत्यादि आगारों से मेरा कायोत्सर्ग भग्न न एवं विराधना रहित हो । जब तक अरिहंत भगवानों को नमस्कार न कर लूँ, तब तक एक स्थान पर स्थिर रह, मौन रह कर, धर्मध्यान में चित्त को स्थिर करके अपने शरीर को पाप व्यापारों से अलग करता हूँ ।
प्रस्तुत सूत्र में अतिचारों की विशेष शुद्धि के लिये विधिपूर्वक कायोत्सर्ग का स्वरूप
विवेचन बताया गया है।
यहां पर 'तस्स' पद से अतिचारयुक्त आत्मा को ग्रहण किया गया है। कोई कोई 'तस्स' इस पद से अतिचार का ग्रहण करते हैं, लेकिन वह उचित नहीं है। वास्तव में उसका संबंध 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ' इस पद के साथ है। ‘उत्तरीकरणेणं' और 'विसल्लीकरणेणं' के साथ उसका सम्बन्ध नहीं बैठता। कारण यह है कि न तो अतिचारों को उत्कृष्ट बनाने के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है और न उसमें माया बादि शल्य होते हैं । मायादि शल्य तो आत्मा के विभाव परिणाम हैं, अतः स्पष्ट है कि 'तस्स' का अर्थ आत्मा ही हो सकता है । आत्मविकास की प्राप्ति के लिये शरीर सम्बन्धी समस्त व्यापारों का त्याग करना ही इस सूत्र का प्रयोजन
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यह उत्तरी - करण सूत्र है। इसके द्वारा ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण में शुद्ध आत्मा में बाकी रही हुई सूक्ष्म मलिनता को भी दूर करने के लिये विशेष परिष्कारस्वरूप कायोत्सर्ग का संकल्प किया जाता है । प्रस्तुत उत्तरीकरण पाठ के सम्बन्ध में संक्षिप्त में हम कह सकते हैं कि व्रत एवं आत्मा की शुद्धि के लिये प्रायश्चित आवश्यक है। प्रायश्चित बिना भाव की शुद्धि के नहीं हो सकता । भावशुद्धि के लिये शल्य ( माया, निदान, मिथ्यादर्शन) का त्याग जरूरी है। शल्य का त्याग और पापकर्मों का नाश कायोत्सर्ग से ही हो सकता है. अतः कायोत्सर्ग करना परमावश्यक है I