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[ आवश्यकसूत्र
हों। 'चउवीसंपि' में 'अपि' शब्द से महाविदेह क्षेत्र में विहरमान तीर्थंकर ग्रहण किये गये हैं। उन सबको भी वन्दन करता हूँ।
कतिपय शब्दों का स्पष्टीकरण - कित्तिय – पृथक्-पृथक् नाम से कीर्तित अथवा स्तुत, वंदिय- वन्दित-मन, वचन तथा काय से स्तुत, महिया – पूजित, ज्ञानातिशय आदि गुणों के कारण सब प्राणियों द्वारा सम्मानित । पूजा का अर्थ सत्कार एवं सम्मान करना है । आचार्यों ने पूजा के दो भेद किये हैं - द्रव्यपूजा एवं भावपूजा। प्रभुपूजा के लिये पुष्पों की आवश्यकता होती है, किन्तु वे निरवद्य अचित्त भाव-पुष्प ही होने चाहिये । इसके विषय में जैन-जगत् प्रसिद्ध आचार्य हरिभद्र ने अष्टक प्रकरण में प्रभुपूजा के योग्य भाव-पुष्पों का वर्णन इस प्रकार किया है -
अहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसंगता। गुरु भक्तिस्तपो ज्ञानं, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥
- अष्टक प्रकरण ३।६ अर्थात् - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, भक्ति, तप, एवं ज्ञान रूपी प्रत्येक पुष्प जीवन को महका देने वाला है। ये हृदय के भावपुष्प हैं।
आरुग - अर्थात् आरोग्य-आत्म-स्वास्थ्य या आत्म-शांति। आरोग्य दो प्रकार का होता हैद्रव्यारोग्य और भावारोग्य । द्रव्य-आरोग्य यानि ज्वर आदि रोगों-विकारों से रहित होना। भाव-आरोग्य यानि कर्म-विकारों से रहित होना । अर्थात् आत्म-शांति मिलना, आत्म-स्वरूपस्थ होना या सिद्ध होना । प्रस्तुत सूत्र में 'आरोग्य' का मूल अभिप्राय भाव-आरोग्य से है। भाव-आरोग्य की साधना के लिये द्रव्य-आरोग्य भी अपेक्षित है, क्योंकि जब तक शरीर एवं मन स्वस्थ नहीं होगा, तब तक आत्मसाधना का होना कठिन होगा, किन्तु वह यहाँ विवक्षित नहीं है । अथवा 'आरुग्गबोहिलाभं' पद का अर्थ है - आरोग्य अर्थात् मोक्ष के लिये बोधि सम्यग्दर्शनादि का लाभ।
संसार-सागर से पार कराने वाला एवं दुर्गति से बचाने वाला धर्म ही सच्चा तीर्थ है-जो अहिंसा, सत्य आदि धर्म-तीर्थ की स्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं । चौबीसों ही तीथकरों ने अपने-अपने समय में धर्म की स्थापना की है, धर्म से डिगती हुई जनता को पुनः धर्म में स्थिर किया है।
प्रस्तुत पाठ में अन्तिम शब्द आते हैं -सिद्धा सिद्धी मम दिसंतु-इसका अर्थ है-सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि प्रदान करें। यहाँ शंका हो सकती है कि-सिद्ध भगवान् तो वीतराग हैं, कृतकृत्य हैं, किसी को कुछ देते-लेते नहीं, फिर उनसे इस प्रकार की याचना क्यों की गई है? समाधान यह है कि वस्तुतः इसका आशय यह है कि भक्त भगवान् का आलम्बन लेकर ही सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। ॥ द्वितीय आवश्यक समाप्त ॥
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