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[ आवश्यकसूत्र
(२) सिद्धों की शरण स्वीकार करता हूँ, (३) साधुओं की शरण स्वीकार करता हूँ, (४) सर्वज्ञप्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ।
विवेचन – विश्व का कोई भी भौतिक पदार्थ मानव को वास्तविक रूप में शरण नहीं दे सकता है। चाहे माता हो, पिता हो, पुत्र हो, पत्नी हो, धन-वैभव हो अथवा अन्य कोई स्वजन परिजन हो । किन्तु इस तथ्य को न जानकर अज्ञानी मानव दुनिया के नश्वर पदार्थों को ही शरण समझता है।
वास्तविकता यह है कि विश्व में सिवाय अरिहंत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञप्ररूपित धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई शरणदाता नहीं है। जितने भी अतीत एवं वर्तमान में दुष्टजन शिष्ट बने हैं, वे चार शरण स्वीकार करने पर ही बने हैं। मनुष्य धर्म की शरण में आना चाहता है। धर्म में शरण देने की क्षमता है "धम्मो. दीवो पइट्ठा णं" अर्थात धर्म एक दीप है - प्रकाशपुंज है, एक प्रतिष्ठा है - एक आधार है, एक गति है । शरण देने वाले और भी अनेक हो सकते हैं किन्तु वही उत्तम शरण है जो हमें त्राण देता है। संकटों से उबारता है, भय से विमुक्त निर्भय बनाता है। संसार का कौन-सा पदार्थ है जो हमें सदा के लिये मृत्यु के भय से बचा सके ? पाप-कर्मों के अनिष्ट विपाक से हमारी रक्षा कर सके ? यह शक्ति सूत्रोक्त चार की शरण ग्रहण में ही है। अतएव यही चार पारमार्थिक दृष्टि से शरण-भूत हैं। प्रतिक्रमण-सूत्र
इच्छामि ठामि काउस्सगं जो मे देवसिओ अइयारो कओ काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुल्झाओ, दुविचिंतिओ अणायारो, अणिच्छियव्वो, असमणपाउग्गो, नाणे तह दसणे चरित्ते सुए सामाइए, तिहं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, पंचण्हं महव्वयाणं, छण्हं जीवनिकायाणं, सत्तहं पिंडेसणाणं, अट्ठण्हं पवयणमाऊणं, नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं, दसविहे समणधम्मे, समणाणं जोगाणं जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं॥
भावार्थ – हे भदन्त ! मैं चित्त को स्थिरता के साथ, एक स्थान पर स्थिर रहकर, ध्यान-मौन के सिवाय अन्य सभी व्यापारों का परित्याग रूप कायोत्सर्ग करता हूँ। [ परन्तु इसके पहले शिष्य अपने दोषों की आलोचना करता है – ] ज्ञान में, दर्शन में, चारित्र में तथा विशेष रूप से श्रुतधर्म में, सम्यक्त्व रूप तथा चारित्र रूप सामायिक में 'जो मे देवसिओ' अर्थात् मेरे द्वारा प्रमादवश दिवस सम्बन्धी (तथा रात्रि सम्बन्धी) संयम मर्यादा का उल्लंघन रूप जो अतिचार किया गया हो, चाहे वह कायिक, मानसिक, वाचिक अथवा मानसिक अतिचार हो, उस अतिचार का पाप मेरे लिये निष्फल हो।
वह अतिचार सूत्र के विरुद्ध है, मार्ग अर्थात् परम्परा से विरुद्ध है, अकल्प्य-आचार से विरुद्ध है,