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है। ऐतिहासिक कथाओं की प्रचुरता है। यह चूर्णि अन्य चूर्णियों से विस्तृत है। ओघनियुक्ति चूर्णि, गोविन्दनियुक्ति, वसुदेवहिण्डी प्रभृति अनेक ग्रन्थों का उल्लेख इसमें हुआ है। सर्वप्रथम मंगल की चर्चा की गई है। भावमंगल में ज्ञान का निरूपण है । श्रुतज्ञान की दृष्टि से आवश्यक पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया है। द्रव्यावश्यक और भावावश्यक पर प्रकाश डाला है। श्रुत का प्ररूपण तीर्थंकर करते हैं। तीर्थंकर कौन होते हैं - इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान महावीर का जीव मिथ्यात्व से किस प्रकार मुक्त हुआ, यह प्रतिपादन करने के लिये महावीर के पूर्व भवों की चर्चा की गई है। महावीर का जीव मरीचि के भव में ऋषभदेव का पौत्र था। अतः भगवान ऋषभदेव के पूर्व भव और ऋषभदेव के जीवन पर प्रकाश डाला है। सम्राट भरत का भी सम्पूर्ण जीवन इसमें आया है। भगवान महावीर का जीव अनेक भवों के पश्चात् महावीर बना। महावीर के जीवन में जो भी उपसर्ग आये, उसका सविस्तृत निरूपण चूर्णि में हुआ है। नियुक्ति की तरह निह्नववाद का भी निरूपण है। उसके पश्चात् द्रव्य, पर्याय, नयदृष्टि से सामायिक के भेद, उसका स्वामी, उसकी प्राप्ति का क्षेत्र, काल, दिशा, सामायिक करने वाला, उसकी प्राप्ति के हेतु, आनन्द, कामदेव का दृष्टान्त, अनुकम्पा, इन्द्रनाग, पुण्यशाल, शिवराजर्षि गंगदत्त, दशार्णभद्र, इलापुत्र आदि के दृष्टान्त दिये हैं। सामायिक की स्थिति, सामायिकवालों की संख्या, सामायिक का अन्तर, सामायिक का आकर्ष, समभाव की महत्ता का प्रतिपादन करने के लिये दमदत्त एवं मेतार्य का दृष्टान्त दिया है। समास, संक्षेप और अनवद्य के लिये धर्मरुचि व प्रत्याख्यान के लिये तेतलीपुत्र का दृष्टान्त देकर विषय को स्पष्ट किया गया है। इसके पश्चात् सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति की चूर्णि है। उसमें नमस्कार महामंत्र, निक्षेप दृष्टि से स्नेह, राग व द्वेष के लिये क्रमशः अर्हन्त्रक, धर्मरु चि तथा जमग्नि का उदाहरण दिया गया है। अरिहन्तों व सिद्धों को नमस्कार, औत्पत्तिकी आदि चारों प्रकार की बुद्धि, कर्म, समुद्घात, योगनिरोध, सिद्धों का अपूर्व आनन्द, आचार्य उपाध्यायों और साधुओं को नमस्कार एवं उसके प्रयोजन पर प्रकाश डाला है। उसके बाद सामायिक के पाठ 'करेमि भन्ते' की व्याख्या करके छह प्रकार के कर्म का विस्तृत निरूपण किया गया
है।
चतुर्विंशतिस्तव में स्तव, लोक, उद्योत, धर्म-तीर्थंकर आदि पदों पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया है। तृतीय वन्दना अध्ययन में वन्दन के योग्य श्रमण के स्वरूप का प्रतिपादन किया है और चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म, विनयकर्म को दृष्टान्त देकर समझाया गया है। अनन्ध को वन्दन करने का निषेध किया गया है।
चतुर्थ अध्ययन में प्रतिक्रमण की परिभाषा प्रतिक्रामक, प्रतिक्रमण, प्रतिक्रान्तव्य इन तीन दृष्टियों से की गई है। प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवत्ति, निन्दा, गर्हा, शद्धि और आलोचना पर विवेचना करते हये उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। कायिक, वाचिक, मानसिक, अतिचार, ईर्यापथिकी विराधना, प्रकाम शय्या, भिक्षाचर्या, स्वाध्याय आदि में लगने वाले अतिचार, चार विकथा, चार ध्यान, पाँच क्रिया, पाँच कामगुण, पाँच महाव्रत, पाँच समिति आदि का प्रतिपादन किया है। शिक्षा के ग्रहण और आसेवन ये दो भेद किये हैं। अभय कुमार का विस्तार से जीवन-परिचय दिया है। साथ ही सम्राट श्रेणिक, चेल्लणा, सुरसा, कोणिक, चेटक, उदायी, महापद्मनन्द, शकडाल, वररुचि, स्थूलभद्र आदि ऐतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र भी दिये गये हैं। व्रत की महत्ता का प्रतिपादन करते हुये कहा है - प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश करना श्रेयस्कर है, किन्तु शील से स्खलित होकर जीवित रहना अनुचित है।
पञ्चम अध्ययन में कायोत्सर्ग का वर्णन है। कायोत्सर्ग एक प्रकार से आध्यात्मिक व्रणचिकित्सा है। कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग ये दो पद हैं। काय का नाम, स्थापना आदि बारह प्रकार के निक्षेपों से वर्णन किया है और उत्सर्ग का छह निक्षेपों से। कायोत्सर्ग के चेष्टाकायोत्सर्ग और अभिभवकायोत्सर्ग ये दो भेद हैं। गमन आदि में जो दोष लगा हो उसके पाप से निवृत्त होने के लिये चेष्टाकायोत्सर्ग किया जाता है। हूण आदि से पराजित होकर जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह अभिभवकायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग के प्रशस्त एवं अप्रशस्त ये दो भेद हैं और फिर उच्छ्रित आदि नौ भेद हैं। श्रुत, सिद्ध की
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